[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7867
एते धावन्तीन्दवः सोमा इन्द्राय घृष्वयः। मत्सरासः स्वर्विदः॥1॥
स्वयं - प्रकाश है वह परमात्मा वह ही आलोक - प्रदाता है ।
सर्वत्र व्याप्त है वह परमेश्वर वह ही पिता वही माता है ॥1॥
7868
प्रवृण्वन्तो अभियुजः सुष्वये वरिवोविदः। स्वयं स्तोत्रे वयस्कृतः॥2॥
विविध - विधा की उसकी रचना कितना सुन्दर है संसार ।
प्रभु के साधक सब सुख पाते हैं हो जाते भव - सागर पार॥2॥
7869
वृथा क्रीळन्त इन्दवः सधस्थमभ्येकमित् । सिन्धोरूर्मा व्यक्षरन्॥3॥
आदित्य - चन्द्र उजियारा लाकर वसुधा को देते आलोक ।
चन्द्रमा अचानक छिप जाता जैसे हो कोई स्वप्न - लोक ॥3॥
7870
एते विश्वानि वार्या पवमानास आशत । हिता न सप्तयो रथे ॥4॥
अनगिन तारे नक्षत्र चमकते चलता है कोई कोई अचल है ।
सबकी गति अत्यन्त अद्भुत है इन्हें चलाता कौन सबल है ॥4॥
7871
आस्मिन्पिशङ्गमिन्दवो दधाता वेनमादिशे । यो अस्मभ्यमरावा॥5॥
इस आकर्षक नभ - मण्डल में भॉति - भॉति के शब्द भरे हैं ।
यदा - कदा हम सब सुनते हैं थिरके कभी तो कभी डरे हैं ॥5॥
7872
ऋभुर्न रथ्यं नवं दधाता केतमादिशे ।शुक्रा: पवध्वमर्णसा ॥6॥
प्रभु ने कर्म - स्वतंत्र बनाया पर फल से हम हैं कोसों दूर ।
नर कर्मानुकूल फल पाता यदि आज न हीं तो कल ज़रूर ॥6॥
7873
एत उ त्ये अवीवशन्काष्ठां वाजिनो अक्रत । सतः प्रासाविषुर्मतिम्॥7॥
जो जन विधि - निषेध पर चलते उनको मिलता है आत्म - ज्ञान ।
हे प्रभु आनन्द - रस दे देना दया - दृष्टि रखना भगवान ॥7॥
7867
एते धावन्तीन्दवः सोमा इन्द्राय घृष्वयः। मत्सरासः स्वर्विदः॥1॥
स्वयं - प्रकाश है वह परमात्मा वह ही आलोक - प्रदाता है ।
सर्वत्र व्याप्त है वह परमेश्वर वह ही पिता वही माता है ॥1॥
7868
प्रवृण्वन्तो अभियुजः सुष्वये वरिवोविदः। स्वयं स्तोत्रे वयस्कृतः॥2॥
विविध - विधा की उसकी रचना कितना सुन्दर है संसार ।
प्रभु के साधक सब सुख पाते हैं हो जाते भव - सागर पार॥2॥
7869
वृथा क्रीळन्त इन्दवः सधस्थमभ्येकमित् । सिन्धोरूर्मा व्यक्षरन्॥3॥
आदित्य - चन्द्र उजियारा लाकर वसुधा को देते आलोक ।
चन्द्रमा अचानक छिप जाता जैसे हो कोई स्वप्न - लोक ॥3॥
7870
एते विश्वानि वार्या पवमानास आशत । हिता न सप्तयो रथे ॥4॥
अनगिन तारे नक्षत्र चमकते चलता है कोई कोई अचल है ।
सबकी गति अत्यन्त अद्भुत है इन्हें चलाता कौन सबल है ॥4॥
7871
आस्मिन्पिशङ्गमिन्दवो दधाता वेनमादिशे । यो अस्मभ्यमरावा॥5॥
इस आकर्षक नभ - मण्डल में भॉति - भॉति के शब्द भरे हैं ।
यदा - कदा हम सब सुनते हैं थिरके कभी तो कभी डरे हैं ॥5॥
7872
ऋभुर्न रथ्यं नवं दधाता केतमादिशे ।शुक्रा: पवध्वमर्णसा ॥6॥
प्रभु ने कर्म - स्वतंत्र बनाया पर फल से हम हैं कोसों दूर ।
नर कर्मानुकूल फल पाता यदि आज न हीं तो कल ज़रूर ॥6॥
7873
एत उ त्ये अवीवशन्काष्ठां वाजिनो अक्रत । सतः प्रासाविषुर्मतिम्॥7॥
जो जन विधि - निषेध पर चलते उनको मिलता है आत्म - ज्ञान ।
हे प्रभु आनन्द - रस दे देना दया - दृष्टि रखना भगवान ॥7॥
सराहनीय संकलन...
ReplyDeleteअनगिन तारे नक्षत्र चमकते चलता है कोई कोई अचल है ।
ReplyDeleteसबकी गति अत्यन्त अद्भुत है इन्हें चलाता कौन सबल है ॥4॥
उस सबल को शत शत नमन...