Thursday, 29 May 2014

सूक्त - 21

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7867
एते धावन्तीन्दवः सोमा इन्द्राय घृष्वयः। मत्सरासः स्वर्विदः॥1॥

स्वयं - प्रकाश  है  वह  परमात्मा  वह  ही आलोक - प्रदाता  है ।
सर्वत्र  व्याप्त  है  वह  परमेश्वर  वह   ही पिता वही माता  है ॥1॥

7868
प्रवृण्वन्तो अभियुजः सुष्वये वरिवोविदः। स्वयं स्तोत्रे वयस्कृतः॥2॥

विविध - विधा  की  उसकी   रचना कितना  सुन्दर  है  संसार ।
प्रभु के साधक सब सुख पाते  हैं  हो  जाते भव - सागर पार॥2॥

7869
वृथा क्रीळन्त इन्दवः सधस्थमभ्येकमित् । सिन्धोरूर्मा व्यक्षरन्॥3॥

आदित्य - चन्द्र  उजियारा  लाकर  वसुधा  को  देते  आलोक ।
चन्द्रमा अचानक छिप जाता  जैसे हो कोई स्वप्न - लोक ॥3॥

7870
एते विश्वानि वार्या पवमानास आशत । हिता न सप्तयो रथे ॥4॥

अनगिन  तारे  नक्षत्र  चमकते  चलता  है  कोई कोई अचल है ।
सबकी गति अत्यन्त अद्भुत है इन्हें चलाता कौन सबल है ॥4॥

7871
आस्मिन्पिशङ्गमिन्दवो दधाता वेनमादिशे । यो अस्मभ्यमरावा॥5॥

इस आकर्षक नभ - मण्डल में भॉति - भॉति के शब्द भरे  हैं ।
यदा - कदा हम सब सुनते हैं थिरके कभी तो कभी डरे हैं ॥5॥

7872
ऋभुर्न रथ्यं नवं दधाता केतमादिशे ।शुक्रा: पवध्वमर्णसा ॥6॥

प्रभु  ने  कर्म - स्वतंत्र  बनाया पर फल  से हम  हैं  कोसों  दूर ।
नर  कर्मानुकूल फल पाता यदि आज न हीं तो कल ज़रूर ॥6॥

7873
एत उ त्ये अवीवशन्काष्ठां वाजिनो अक्रत । सतः प्रासाविषुर्मतिम्॥7॥

जो जन विधि - निषेध पर चलते उनको मिलता है आत्म - ज्ञान ।
हे  प्रभु  आनन्द -  रस  दे  देना  दया - दृष्टि  रखना  भगवान ॥7॥



 

2 comments:

  1. सराहनीय संकलन...

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  2. अनगिन तारे नक्षत्र चमकते चलता है कोई कोई अचल है ।
    सबकी गति अत्यन्त अद्भुत है इन्हें चलाता कौन सबल है ॥4॥

    उस सबल को शत शत नमन...

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