[ऋषि- अमहीयु आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
8089
अया वीती परि स्त्रव यस्त इन्दो मदेष्वा । अवाहन्नवतीर्नव॥1॥
हे सेनापति तुम दुश्मन पर नरम - गरम रुख अपनाओ ।
यदि वह तुमको ललकारे तो अपनी विधि से तुम समझाओ॥1॥
8090
पुरःसद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरम् । अध त्यं तुर्वशं यदुम्॥2॥
सेनापति यदि कर्म - कुशल हो वह किला शत्रु का ध्वस्त करे ।
अपनी सीमा रखे सुरक्षित दुश्मन से कभी तनिक न डरे ॥2॥
8091
परि णो अश्वमश्वविद्गोमदिन्दो हिरण्यवत् । क्षरा सहस्त्रिणीरिसः॥3॥
कर्म - मार्ग पर चलने वाला विविध - विधा से सुख पाता है ।
सुख के साधन स्वतः ढूँढता औरों को भी बतलाता है ॥3॥
8092
पवमानस्य ते वयं पवित्रमभ्युन्दतः । सखित्वमा वृणीमहे॥4॥
जो हम पर निर्भर हैं उनको प्रोत्साहित हमको करना है ।
हे प्रभु सख्य - भाव से आओ मुझको तुमसे कुछ कहना है॥4॥
8093
ये ते पवित्रमूर्मयोSभिक्षरन्ति धारया । तेभिर्नः सोम मृळय॥5॥
कर्म - मार्ग को हम अपनायें हे प्रभु तुम ही साथ निभाना ।
उद्यम - पथ पर चलें निरन्तर मुझे लक्ष्य तक तुम पहुँचाना ॥5॥
8094
स नःपुनान आ भर रयिं वीरवतीमिषम् । ईशानःसोम विश्वतः॥6॥
विद्त् - जन विद्या के बल से सुख का करते अनुसन्धान ।
विद्यावान प्रणम्य सदा है वह अविरल देता अनुदान ॥6॥
8095
एतमु त्यं दश क्षिपो मृजन्ति सिन्धुमातरम् । समादित्येभिरख्यत॥7॥
दस इन्द्रिय यह सिखलाती है कर्म - मार्ग पथ दिखलाती है ।
आत्म-ज्ञान पथ वही बताती सद्-गति पथ पर ले जाती है॥7॥
8096
समिन्द्रेणोत वायुना सुत एति पवित्र आ । सं सूर्यस्य रश्मिभिः॥8॥
कर्म - मार्ग है सुखद सुसंस्कृत सब कुछ सम्भव हो जाता है ।
उद्यम से कार्य सिध्द होता है साधक जो चाहे पाता है ॥8॥
8097
स नो भगाय वायवे पूष्णे पवस्व मधुमान् । चारुर्मित्रे वरुणे च॥9॥
कर्म - मार्ग पथ पर ले जाना उद्योगी तुम मुझे बनाना ।
मैं भी सुख-वैभव को जानूँ आत्म-ज्ञान का मार्ग बताना॥9॥
8098
उच्चा ते जातमन्धसो दिवि षद्भूम्या ददे । उग्रं शर्म महि श्रवः॥10॥
कर्म - मार्ग अत्यन्त मधुर है वसुधा को मिलता वरदान ।
अनुसन्धान कोई करता है पर पाता है हर इन्सान ॥10॥
8099
एना विश्वान्यर्य आ द्युम्नानि मानुषाणाम् । सिषासन्तो वनामहे॥11॥
आदर्श हेतु हम रहें समर्पित मेहनत से अपना काम करें ।
इसका प्रतिफल भी मिलता है इस धरती का ताप हरें ॥11॥
8100
स न इन्द्राय यज्यवे वरुणाय मरुद्भ्यः। वरिवोवित्परि स्त्रव॥12॥
अम्बर - अवनि श्रोत हैं सुख के कर्म - मार्ग से मिलता फल ।
कर्म - मार्ग पर चलते रहना निश्चित पाओगे प्रतिफल ॥12॥
8101
उपो षु जातमप्तुरं गोभिर्भङ्गं परिष्कृतम् । इन्दुं देवा अयासिषुः॥13॥
सत् - संगति है बहुत ज़रूरी यही अभ्युदय का है मन्त्र ।
बिखरे पडे हैं सुख साधन के यहीं लगा दो अपना तन्त्र॥13॥
8102
तमिद्वर्धन्तु नो गिरो वत्सं संशिश्वरीरिव । य इन्द्रस्य हृदंसनिः॥14॥
आदर्शों के साथ जियें हम कभी न छोडें उसका साथ ।
सत्कर्म-गली में चलें निरन्तर अपनों के हाथों में हो हाथ॥14॥
8103
अर्षा णः सोम शं गवे धुक्षस्व पिप्युषीमिषम् । वर्धा समुद्रमुक्थ्यम्॥15॥
यदि वैभव की चाह तुम्हें हो कर्म - योग के पथ पर आओ ।
सुख कर जीवन जियो उम्र भर उद्यम से तुम सब कुछ पाओ॥15॥
8104
पवमानो अजीजनद्दिवश्चित्रं न तन्यतुम् । ज्योतिर्वैश्वानरं बृहत्॥16॥
कर्म - मार्ग में सुख - साधन है मेहनत कर पाओ आनन्द ।
देश को भी समृध्द बनाओ यहॉ न हो कोई निरानन्द ॥16॥
8105
पवमानस्य ते रसो मदो राजन्नदुच्छुनः। वि वारमव्यमर्षति॥17॥
प्रभु उपासना जो करता है जीवन में सब कुछ पाता है ।
यश - वैभव उसको मिलता है जीवन पारस बन जाता है॥17॥
8106
पवमान रसस्तव दक्षो हि राजति द्युमान् । ज्योतिर्विश्वं स्वर्दृशे॥18॥
हर मानव में दिव्य - शक्ति है पर इससे हम होते अनभिज्ञ ।
देव - भाव से भरे हैं हम सब यही बताते रहते विज्ञ ॥18॥
8107
यस्ते मदो वरेण्यस्तेना पवस्वान्धसा । देवावीरघशंसहा॥19॥
परमेश्वर सज्जन के रक्षक दुष्टों को वे दण्डित करते हैं ।
हे आनन्द-रस आनन्द देना बार - बार विनती करते हैं ॥19॥
8108
जघ्निर्वृत्रममित्रियं सस्निर्वाजं दिवेदिवे । गोषा उ अश्वसा असि॥20॥
दुष्ट - दलन अति आवश्यक है सज्जन का तुम रखना ध्यान ।
सत्पथ पर तुम लेकर चलना दया - दृष्टि रखना भगवान ॥20॥
8109
सम्मिश्लो अरुषो भव सूपस्थाभिर्न धेनुभिः। सीदञ्छ्येनो न योनिमा॥21॥
विद्युत सदृश शक्ति है उसकी अति अद्भुत है अतुलनीय है ।
सकारात्मक उपयोग करें हम तब सुखकर है श्लाघनीय है॥21॥
8110
स पवस्व य आविथेन्द्रं वृत्राय हन्तवे । वव्रिवांसं महीरपः॥22॥
तुम अनन्त बल के स्वामी हो रक्षा करना सदा हमारी ।
सत्पथ पर मुझको ले चलना तुम पर है यह जिम्मेदारी ॥22॥
8111
सुवीरासो वयं धना जयेम सोम मीढ्वः। पुनानो वर्ध नो गिरः॥23॥
हे सुख - वर्धक हे परमेश्वर हमको वाणी का वैभव देना ।
सत्संगति में रहें निरन्तर तुम हमको भी अपना लेना॥23॥
8112
त्वोतासस्तवावसा स्याम वन्वन्त आमुरः। सोम व्रतेषु जागृहि॥24॥
हे प्रभु तुम्हीं सुरक्षा देना हमको तुम सन्मार्ग दिखाना ।
राह भूल - कर भटक न जायें सही राह पर तुम ले आना॥24॥
8113
अपघ्नन्पवते मृधोSप सोमो अराव्णः। गच्छन्निन्द्रस्य निष्कृतम्॥25॥
अपनी आय से कुछ निकाल कर देश को भी देना पडता है ।
हर जागरूक नर 'कर' देता है इससे समाज आगे बढता है ॥25॥
8114
महो नो राय आ भर पवमान जही मृधः। रास्वेन्दो वीरवद्यशः॥26॥
राज - धर्म अति आवश्यक है यह है हम सबका दायित्व ।
इससे प्रजा सुरक्षित होती खिल उठता सबका व्यक्तित्व ॥26॥
8115
न त्वा शतं चन ह्रुतो राधो दित्सन्तमा मिनन्।यत्पुनानो मखस्यसे॥27॥
जो समाज हेतु 'कर' लेता है नहीं है वह कोई अपराध ।
इससे देश अभ्युदय पाता सब कुछ चलता है निर्बाध ॥27॥
8116
पवस्वेन्दो वृषा सुतः कृधी नो यशसो जने।विश्वा अप द्विषो जहि॥28॥
मनो - कामना पूरी करना तुम हम सबकी रक्षा करना ।
यश - वैभव हमको देना प्रभु हम सबकी विपदा हरना॥28॥
8117
अस्य ते सख्ये वयं तवेन्दो द्युम्न उत्तमे । सासह्याम पृतन्यतः॥29॥
हे परम - मित्र हे परमेश्वर आओ तुम सख्य भाव से आओ ।
तुम यश - वैभव के स्वामी हो अज्ञान- तिमिर से मुझे बचाओ॥29॥
8118
या ते भीमान्यायुधा तिग्मानि सन्ति धूर्वणे।रक्षा समस्य नो निदः॥30॥
हे सेनापति तुम अस्त्र - शस्त्र से सदा सुसज्जित ही रहना ।
आयुध करते हैं देश की रक्षा आयुध तीक्ष्ण सदा रखना ॥30॥
8089
अया वीती परि स्त्रव यस्त इन्दो मदेष्वा । अवाहन्नवतीर्नव॥1॥
हे सेनापति तुम दुश्मन पर नरम - गरम रुख अपनाओ ।
यदि वह तुमको ललकारे तो अपनी विधि से तुम समझाओ॥1॥
8090
पुरःसद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरम् । अध त्यं तुर्वशं यदुम्॥2॥
सेनापति यदि कर्म - कुशल हो वह किला शत्रु का ध्वस्त करे ।
अपनी सीमा रखे सुरक्षित दुश्मन से कभी तनिक न डरे ॥2॥
8091
परि णो अश्वमश्वविद्गोमदिन्दो हिरण्यवत् । क्षरा सहस्त्रिणीरिसः॥3॥
कर्म - मार्ग पर चलने वाला विविध - विधा से सुख पाता है ।
सुख के साधन स्वतः ढूँढता औरों को भी बतलाता है ॥3॥
8092
पवमानस्य ते वयं पवित्रमभ्युन्दतः । सखित्वमा वृणीमहे॥4॥
जो हम पर निर्भर हैं उनको प्रोत्साहित हमको करना है ।
हे प्रभु सख्य - भाव से आओ मुझको तुमसे कुछ कहना है॥4॥
8093
ये ते पवित्रमूर्मयोSभिक्षरन्ति धारया । तेभिर्नः सोम मृळय॥5॥
कर्म - मार्ग को हम अपनायें हे प्रभु तुम ही साथ निभाना ।
उद्यम - पथ पर चलें निरन्तर मुझे लक्ष्य तक तुम पहुँचाना ॥5॥
8094
स नःपुनान आ भर रयिं वीरवतीमिषम् । ईशानःसोम विश्वतः॥6॥
विद्त् - जन विद्या के बल से सुख का करते अनुसन्धान ।
विद्यावान प्रणम्य सदा है वह अविरल देता अनुदान ॥6॥
8095
एतमु त्यं दश क्षिपो मृजन्ति सिन्धुमातरम् । समादित्येभिरख्यत॥7॥
दस इन्द्रिय यह सिखलाती है कर्म - मार्ग पथ दिखलाती है ।
आत्म-ज्ञान पथ वही बताती सद्-गति पथ पर ले जाती है॥7॥
8096
समिन्द्रेणोत वायुना सुत एति पवित्र आ । सं सूर्यस्य रश्मिभिः॥8॥
कर्म - मार्ग है सुखद सुसंस्कृत सब कुछ सम्भव हो जाता है ।
उद्यम से कार्य सिध्द होता है साधक जो चाहे पाता है ॥8॥
8097
स नो भगाय वायवे पूष्णे पवस्व मधुमान् । चारुर्मित्रे वरुणे च॥9॥
कर्म - मार्ग पथ पर ले जाना उद्योगी तुम मुझे बनाना ।
मैं भी सुख-वैभव को जानूँ आत्म-ज्ञान का मार्ग बताना॥9॥
8098
उच्चा ते जातमन्धसो दिवि षद्भूम्या ददे । उग्रं शर्म महि श्रवः॥10॥
कर्म - मार्ग अत्यन्त मधुर है वसुधा को मिलता वरदान ।
अनुसन्धान कोई करता है पर पाता है हर इन्सान ॥10॥
8099
एना विश्वान्यर्य आ द्युम्नानि मानुषाणाम् । सिषासन्तो वनामहे॥11॥
आदर्श हेतु हम रहें समर्पित मेहनत से अपना काम करें ।
इसका प्रतिफल भी मिलता है इस धरती का ताप हरें ॥11॥
8100
स न इन्द्राय यज्यवे वरुणाय मरुद्भ्यः। वरिवोवित्परि स्त्रव॥12॥
अम्बर - अवनि श्रोत हैं सुख के कर्म - मार्ग से मिलता फल ।
कर्म - मार्ग पर चलते रहना निश्चित पाओगे प्रतिफल ॥12॥
8101
उपो षु जातमप्तुरं गोभिर्भङ्गं परिष्कृतम् । इन्दुं देवा अयासिषुः॥13॥
सत् - संगति है बहुत ज़रूरी यही अभ्युदय का है मन्त्र ।
बिखरे पडे हैं सुख साधन के यहीं लगा दो अपना तन्त्र॥13॥
8102
तमिद्वर्धन्तु नो गिरो वत्सं संशिश्वरीरिव । य इन्द्रस्य हृदंसनिः॥14॥
आदर्शों के साथ जियें हम कभी न छोडें उसका साथ ।
सत्कर्म-गली में चलें निरन्तर अपनों के हाथों में हो हाथ॥14॥
8103
अर्षा णः सोम शं गवे धुक्षस्व पिप्युषीमिषम् । वर्धा समुद्रमुक्थ्यम्॥15॥
यदि वैभव की चाह तुम्हें हो कर्म - योग के पथ पर आओ ।
सुख कर जीवन जियो उम्र भर उद्यम से तुम सब कुछ पाओ॥15॥
8104
पवमानो अजीजनद्दिवश्चित्रं न तन्यतुम् । ज्योतिर्वैश्वानरं बृहत्॥16॥
कर्म - मार्ग में सुख - साधन है मेहनत कर पाओ आनन्द ।
देश को भी समृध्द बनाओ यहॉ न हो कोई निरानन्द ॥16॥
8105
पवमानस्य ते रसो मदो राजन्नदुच्छुनः। वि वारमव्यमर्षति॥17॥
प्रभु उपासना जो करता है जीवन में सब कुछ पाता है ।
यश - वैभव उसको मिलता है जीवन पारस बन जाता है॥17॥
8106
पवमान रसस्तव दक्षो हि राजति द्युमान् । ज्योतिर्विश्वं स्वर्दृशे॥18॥
हर मानव में दिव्य - शक्ति है पर इससे हम होते अनभिज्ञ ।
देव - भाव से भरे हैं हम सब यही बताते रहते विज्ञ ॥18॥
8107
यस्ते मदो वरेण्यस्तेना पवस्वान्धसा । देवावीरघशंसहा॥19॥
परमेश्वर सज्जन के रक्षक दुष्टों को वे दण्डित करते हैं ।
हे आनन्द-रस आनन्द देना बार - बार विनती करते हैं ॥19॥
8108
जघ्निर्वृत्रममित्रियं सस्निर्वाजं दिवेदिवे । गोषा उ अश्वसा असि॥20॥
दुष्ट - दलन अति आवश्यक है सज्जन का तुम रखना ध्यान ।
सत्पथ पर तुम लेकर चलना दया - दृष्टि रखना भगवान ॥20॥
8109
सम्मिश्लो अरुषो भव सूपस्थाभिर्न धेनुभिः। सीदञ्छ्येनो न योनिमा॥21॥
विद्युत सदृश शक्ति है उसकी अति अद्भुत है अतुलनीय है ।
सकारात्मक उपयोग करें हम तब सुखकर है श्लाघनीय है॥21॥
8110
स पवस्व य आविथेन्द्रं वृत्राय हन्तवे । वव्रिवांसं महीरपः॥22॥
तुम अनन्त बल के स्वामी हो रक्षा करना सदा हमारी ।
सत्पथ पर मुझको ले चलना तुम पर है यह जिम्मेदारी ॥22॥
8111
सुवीरासो वयं धना जयेम सोम मीढ्वः। पुनानो वर्ध नो गिरः॥23॥
हे सुख - वर्धक हे परमेश्वर हमको वाणी का वैभव देना ।
सत्संगति में रहें निरन्तर तुम हमको भी अपना लेना॥23॥
8112
त्वोतासस्तवावसा स्याम वन्वन्त आमुरः। सोम व्रतेषु जागृहि॥24॥
हे प्रभु तुम्हीं सुरक्षा देना हमको तुम सन्मार्ग दिखाना ।
राह भूल - कर भटक न जायें सही राह पर तुम ले आना॥24॥
8113
अपघ्नन्पवते मृधोSप सोमो अराव्णः। गच्छन्निन्द्रस्य निष्कृतम्॥25॥
अपनी आय से कुछ निकाल कर देश को भी देना पडता है ।
हर जागरूक नर 'कर' देता है इससे समाज आगे बढता है ॥25॥
8114
महो नो राय आ भर पवमान जही मृधः। रास्वेन्दो वीरवद्यशः॥26॥
राज - धर्म अति आवश्यक है यह है हम सबका दायित्व ।
इससे प्रजा सुरक्षित होती खिल उठता सबका व्यक्तित्व ॥26॥
8115
न त्वा शतं चन ह्रुतो राधो दित्सन्तमा मिनन्।यत्पुनानो मखस्यसे॥27॥
जो समाज हेतु 'कर' लेता है नहीं है वह कोई अपराध ।
इससे देश अभ्युदय पाता सब कुछ चलता है निर्बाध ॥27॥
8116
पवस्वेन्दो वृषा सुतः कृधी नो यशसो जने।विश्वा अप द्विषो जहि॥28॥
मनो - कामना पूरी करना तुम हम सबकी रक्षा करना ।
यश - वैभव हमको देना प्रभु हम सबकी विपदा हरना॥28॥
8117
अस्य ते सख्ये वयं तवेन्दो द्युम्न उत्तमे । सासह्याम पृतन्यतः॥29॥
हे परम - मित्र हे परमेश्वर आओ तुम सख्य भाव से आओ ।
तुम यश - वैभव के स्वामी हो अज्ञान- तिमिर से मुझे बचाओ॥29॥
8118
या ते भीमान्यायुधा तिग्मानि सन्ति धूर्वणे।रक्षा समस्य नो निदः॥30॥
हे सेनापति तुम अस्त्र - शस्त्र से सदा सुसज्जित ही रहना ।
आयुध करते हैं देश की रक्षा आयुध तीक्ष्ण सदा रखना ॥30॥
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