[ऋषि- इध्मवाह दार्ढच्युत । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7901
तममृक्षन्त वाजिनमुपस्थे अदितेरधि । विप्रासो अण्वया धिया॥1॥
समाधि प्राप्त कर जिस साधक ने पाया है प्रभु का सामीप्य ।
वे ही सुख को परिभाषित करते जीवन पाता सुख- सान्निध्य ॥1॥
7902
तं गावो अभ्यनूषत सहस्त्रधारमक्षितम् । इन्दुं धर्तारमा दिवः॥2॥
मन परमात्मा को भजता है परमेश्वर ही बनता आधार ।
मन में आनन्द - रस बहता है आनन्द होता है निर्विकार ॥2॥
7903
तं वेधां मेधयाह्यन्पवमानमधि द्यवि । धर्णसिं भूरिधायसम् ॥3॥
वह पावन पूजनीय परमेश्वर बन जाता सबका आधार ।
अपना - पन देता है सब को सदा लुटाता अपना प्यार ॥3॥
7904
तमह्यन्भूरिजोर्धिया संवसानं विवस्वतः। पतिं वाचो अदाभ्यम् ॥4॥
वेद - ऋचायें भी करती हैं उस परमेश्वर का गुण - गान ।
सज्जन पूजन - अर्चन करते योगी - जन करते हैं ध्यान ॥4॥
7905
तं सानावधि जामयो हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। हर्यतं भूरिचक्षसम्॥5॥
परमेश्वर पालक - पोषक है हम सब उसकी हैं सन्तान ।
भक्त योग से उसको पाता वह बन जाता मनुज महान ॥5॥
7906
तं त्वा हिन्वन्ति वेधसः पवमान गिरावृधम् । इन्दविन्द्राय मत्सरम्॥6॥
उस प्रभु की महिमा अद्भुत है वेद - ऋचायें करतीं गान ।
सज्जन ही उनको पाता है दीन - बन्धु है वह भगवान ॥6॥
7901
तममृक्षन्त वाजिनमुपस्थे अदितेरधि । विप्रासो अण्वया धिया॥1॥
समाधि प्राप्त कर जिस साधक ने पाया है प्रभु का सामीप्य ।
वे ही सुख को परिभाषित करते जीवन पाता सुख- सान्निध्य ॥1॥
7902
तं गावो अभ्यनूषत सहस्त्रधारमक्षितम् । इन्दुं धर्तारमा दिवः॥2॥
मन परमात्मा को भजता है परमेश्वर ही बनता आधार ।
मन में आनन्द - रस बहता है आनन्द होता है निर्विकार ॥2॥
7903
तं वेधां मेधयाह्यन्पवमानमधि द्यवि । धर्णसिं भूरिधायसम् ॥3॥
वह पावन पूजनीय परमेश्वर बन जाता सबका आधार ।
अपना - पन देता है सब को सदा लुटाता अपना प्यार ॥3॥
7904
तमह्यन्भूरिजोर्धिया संवसानं विवस्वतः। पतिं वाचो अदाभ्यम् ॥4॥
वेद - ऋचायें भी करती हैं उस परमेश्वर का गुण - गान ।
सज्जन पूजन - अर्चन करते योगी - जन करते हैं ध्यान ॥4॥
7905
तं सानावधि जामयो हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। हर्यतं भूरिचक्षसम्॥5॥
परमेश्वर पालक - पोषक है हम सब उसकी हैं सन्तान ।
भक्त योग से उसको पाता वह बन जाता मनुज महान ॥5॥
7906
तं त्वा हिन्वन्ति वेधसः पवमान गिरावृधम् । इन्दविन्द्राय मत्सरम्॥6॥
उस प्रभु की महिमा अद्भुत है वेद - ऋचायें करतीं गान ।
सज्जन ही उनको पाता है दीन - बन्धु है वह भगवान ॥6॥
समाधि प्राप्त कर जिस साधक ने पाया है प्रभु का सामीप्य ।
ReplyDeleteवे ही सुख को परिभाषित करते जीवन पाता सुख- सान्निध्य ॥1॥
सच्चा सुख भीतर ही है
उस प्रभु की महिमा अद्भुत है...बहुत खूब...
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