Tuesday, 27 May 2014

सूक्त - 26

[ऋषि- इध्मवाह दार्ढच्युत । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7901
तममृक्षन्त वाजिनमुपस्थे अदितेरधि । विप्रासो अण्वया धिया॥1॥

समाधि  प्राप्त  कर  जिस  साधक  ने  पाया  है  प्रभु  का सामीप्य ।
वे ही सुख को परिभाषित करते जीवन पाता सुख- सान्निध्य ॥1॥

7902
तं गावो अभ्यनूषत सहस्त्रधारमक्षितम् । इन्दुं धर्तारमा दिवः॥2॥

मन  परमात्मा  को  भजता  है  परमेश्वर  ही  बनता  आधार ।
मन में आनन्द - रस बहता है आनन्द होता  है निर्विकार ॥2॥

7903
तं वेधां मेधयाह्यन्पवमानमधि द्यवि । धर्णसिं भूरिधायसम् ॥3॥

वह  पावन  पूजनीय  परमेश्वर  बन  जाता  सबका  आधार ।
अपना - पन  देता  है  सब को सदा लुटाता अपना प्यार ॥3॥

7904
तमह्यन्भूरिजोर्धिया संवसानं विवस्वतः। पतिं वाचो अदाभ्यम् ॥4॥

वेद - ऋचायें  भी  करती  हैं  उस  परमेश्वर  का  गुण - गान ।
सज्जन पूजन - अर्चन करते योगी - जन करते हैं ध्यान ॥4॥

7905
तं सानावधि जामयो हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। हर्यतं भूरिचक्षसम्॥5॥

परमेश्वर  पालक - पोषक  है  हम  सब उसकी  हैं  सन्तान ।
भक्त योग से उसको पाता वह बन जाता मनुज  महान ॥5॥

7906
तं त्वा हिन्वन्ति वेधसः पवमान गिरावृधम् । इन्दविन्द्राय मत्सरम्॥6॥

उस  प्रभु  की  महिमा  अद्भुत  है  वेद - ऋचायें  करतीं  गान ।
सज्जन  ही उनको  पाता  है  दीन - बन्धु है वह भगवान ॥6॥  

2 comments:

  1. समाधि प्राप्त कर जिस साधक ने पाया है प्रभु का सामीप्य ।
    वे ही सुख को परिभाषित करते जीवन पाता सुख- सान्निध्य ॥1॥

    सच्चा सुख भीतर ही है

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  2. उस प्रभु की महिमा अद्भुत है...बहुत खूब...

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