Sunday, 11 May 2014

सूक्त - 53

[ऋषि- अवत्सार काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

8057
उत्ते शुष्मासो अस्थू रक्षो भिन्दन्तो अद्रिवः। नुदस्व या: परिस्पृधः॥1॥

हे  आयुध - धर  हे  परमेश्वर  तुम  हम  सबकी  रक्षा  करना ।
कर्मानुसार तुम फल देते हो तुम सबकी सुधि लेते  रहना॥1॥

8058
अया निजघ्निरोजसा रथसङ्गे धने हिते । स्तवा अबिभ्युषा हृदा॥2॥

जो  साधक  कर्म - मार्ग  पर  चलते  वे  पाते हैं प्रभु का सामीप्य ।
निर्भय होकर जीवन-जीते उनको मिलता प्रभु का सान्निध्य ॥2॥

8059
अस्य व्रतानि नाधृषे पवमानस्य दूढ्या । रुज यस्त्वा पृतन्यति॥3॥

असत्य  सत्य  से  डर - कर रहता  श्रुतियॉ  हमको  समझाती  हैं ।
सज्जन प्रति- पल उपक्रम करते दिव्य-शक्तियॉ मिल जाती हैं॥3॥

8060
तं हिन्वन्ति मदच्युतं हरिं नदीषु वाजिनम्।इन्दुमिन्द्राय मत्सरम्॥4॥

आनन्द - रूप  है  वह  परमात्मा  वह  सबको  प्रेरित  करता  है ।
अज्ञान-तिमिर को वही मिटाता सबका ध्यान वही रखता है॥4॥

1 comment:

  1. जो साधक कर्म - मार्ग पर चलते वे पाते हैं प्रभु का सामीप्य ।
    निर्भय होकर जीवन-जीते उनको मिलता प्रभु का सान्निध्य ॥2॥

    वेदों का संरक्षण कितना अमूल्य है..

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