[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]
7860
प्र कविर्देववीतयेSव्यो वारेभिरर्षति । साह्वान्विश्वाअभि स्पृधः॥1॥
जो जैसा चिन्तन करता है परमेश्वर देते वैसा ही ज्ञान ।
वह सब का भाव समझता है दीन बन्धु वह दया निधान॥1॥
7861
स हि ष्मा जरितृभ्य आ वाजं गोमन्तमिन्वति । पवमानःसहस्त्रिणम्॥2॥
जिस में जैसी प्रतिभा होती है परमात्मा प्रोत्साहित करते ।
मञ्जिल तक वे पहुँचाते हैं हाथ पकड - कर वे ले चलते ॥2॥
7862
परि विश्वानि चेतसा मृशसे पवसे मती । स नः सोम श्रवो विदः॥3॥
हे परमात्मा रक्षा करना देते रहना तुम धन - धान ।
भटक न जायें राह दिखाना वर -हस्त रखना भगवान॥3॥
7863
अभ्यर्ष बृहद्यशो मघवद्भ्यो ध्रुवं रयिम् । इषं स्तोतृभ्य आ भर॥4॥
सज्जन सुख - कर जीवन पाता प्रभु रखते हैं उसका ध्यान ।
यश - वैभव वह ही पाता है सबका रक्षक है भगवान ॥4॥
7864
त्वं राजेव सुव्रतो गिरः सोमा विवेशिथ । पुनानो वह्ने अद्भुत॥5॥
नीति - नेम निर्धारित करता पालन करने का देता बल ।
सबका कल्याण वही करता है कर्मानुसार देता है फल ॥5॥
7865
स वह्निरप्सु दुष्टरो मृज्यमानो गभस्त्योः। सोमश्चमृषु सीदति॥6॥
यद्यपि प्रभु सर्वत्र व्याप्त है पर भाव के भूखे हैं भगवान ।
सत्व - भाव में सदा उपस्थित रहते हैं वह कृपा- निधान॥6॥
7866
क्रीळुर्मखो न मंहयुः पवित्रं सोम गच्छसि। दधत्स्तोत्रे सुवीर्यम्॥7॥
अति विचित्र है जग की रचना नहीं है इसका कोई किनारा ।
मन ही उस तक पहुँचाता है मन कभी किसी से कब हारा॥7॥
7860
प्र कविर्देववीतयेSव्यो वारेभिरर्षति । साह्वान्विश्वाअभि स्पृधः॥1॥
जो जैसा चिन्तन करता है परमेश्वर देते वैसा ही ज्ञान ।
वह सब का भाव समझता है दीन बन्धु वह दया निधान॥1॥
7861
स हि ष्मा जरितृभ्य आ वाजं गोमन्तमिन्वति । पवमानःसहस्त्रिणम्॥2॥
जिस में जैसी प्रतिभा होती है परमात्मा प्रोत्साहित करते ।
मञ्जिल तक वे पहुँचाते हैं हाथ पकड - कर वे ले चलते ॥2॥
7862
परि विश्वानि चेतसा मृशसे पवसे मती । स नः सोम श्रवो विदः॥3॥
हे परमात्मा रक्षा करना देते रहना तुम धन - धान ।
भटक न जायें राह दिखाना वर -हस्त रखना भगवान॥3॥
7863
अभ्यर्ष बृहद्यशो मघवद्भ्यो ध्रुवं रयिम् । इषं स्तोतृभ्य आ भर॥4॥
सज्जन सुख - कर जीवन पाता प्रभु रखते हैं उसका ध्यान ।
यश - वैभव वह ही पाता है सबका रक्षक है भगवान ॥4॥
7864
त्वं राजेव सुव्रतो गिरः सोमा विवेशिथ । पुनानो वह्ने अद्भुत॥5॥
नीति - नेम निर्धारित करता पालन करने का देता बल ।
सबका कल्याण वही करता है कर्मानुसार देता है फल ॥5॥
7865
स वह्निरप्सु दुष्टरो मृज्यमानो गभस्त्योः। सोमश्चमृषु सीदति॥6॥
यद्यपि प्रभु सर्वत्र व्याप्त है पर भाव के भूखे हैं भगवान ।
सत्व - भाव में सदा उपस्थित रहते हैं वह कृपा- निधान॥6॥
7866
क्रीळुर्मखो न मंहयुः पवित्रं सोम गच्छसि। दधत्स्तोत्रे सुवीर्यम्॥7॥
अति विचित्र है जग की रचना नहीं है इसका कोई किनारा ।
मन ही उस तक पहुँचाता है मन कभी किसी से कब हारा॥7॥
मन के हारे हार है मन के जीते जीत...
ReplyDeleteअति विचित्र है जग की रचना नहीं है इसका कोई किनारा ।
ReplyDeleteमन ही उस तक पहुँचाता है मन कभी किसी से कब हारा॥
सुंदर भाव..