Friday, 30 May 2014

सूक्त - 20

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7860
प्र कविर्देववीतयेSव्यो वारेभिरर्षति । साह्वान्विश्वाअभि स्पृधः॥1॥

जो  जैसा  चिन्तन  करता  है  परमेश्वर  देते  वैसा  ही  ज्ञान ।
वह सब का भाव समझता है  दीन बन्धु वह दया निधान॥1॥

7861
स हि ष्मा जरितृभ्य आ वाजं गोमन्तमिन्वति । पवमानःसहस्त्रिणम्॥2॥

जिस  में  जैसी प्रतिभा होती है परमात्मा प्रोत्साहित करते ।
मञ्जिल तक वे पहुँचाते हैं हाथ पकड - कर वे ले चलते ॥2॥

7862
परि विश्वानि चेतसा मृशसे पवसे मती । स नः सोम श्रवो विदः॥3॥

हे  परमात्मा  रक्षा  करना  देते  रहना  तुम  धन - धान ।
भटक न जायें राह दिखाना वर -हस्त रखना भगवान॥3॥

7863
अभ्यर्ष बृहद्यशो मघवद्भ्यो ध्रुवं रयिम् । इषं स्तोतृभ्य आ भर॥4॥

सज्जन सुख - कर जीवन पाता प्रभु रखते हैं उसका ध्यान ।
यश - वैभव  वह  ही  पाता  है  सबका रक्षक है भगवान ॥4॥

7864
त्वं राजेव सुव्रतो गिरः सोमा विवेशिथ । पुनानो वह्ने अद्भुत॥5॥

नीति - नेम निर्धारित करता पालन करने  का  देता  बल ।
सबका कल्याण वही करता है कर्मानुसार देता है फल ॥5॥

7865
स वह्निरप्सु दुष्टरो मृज्यमानो गभस्त्योः। सोमश्चमृषु सीदति॥6॥

यद्यपि  प्रभु  सर्वत्र  व्याप्त  है  पर  भाव  के  भूखे हैं भगवान ।
सत्व - भाव में सदा उपस्थित रहते हैं वह कृपा- निधान॥6॥

7866
क्रीळुर्मखो न मंहयुः पवित्रं सोम गच्छसि। दधत्स्तोत्रे सुवीर्यम्॥7॥
 
अति विचित्र है जग की रचना नहीं  है  इसका कोई किनारा ।
मन ही उस तक पहुँचाता है मन कभी किसी से कब हारा॥7॥

 

2 comments:

  1. मन के हारे हार है मन के जीते जीत...

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  2. अति विचित्र है जग की रचना नहीं है इसका कोई किनारा ।
    मन ही उस तक पहुँचाता है मन कभी किसी से कब हारा॥

    सुंदर भाव..

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