[ऋषि-शार्ङ्गा-जरिता-द्रोण-सारिसृक्व-स्तम्बमित्र। देवता-अग्नि।त्रिष्टुप-जगती-अनुष्टुप्।]
10327
अयमग्ने जरिता त्वे अभूदपि सहसः सूनो नह्य1न्यदस्त्याप्यम् ।
भद्रं हि शर्म त्रिवरूथमस्ति त आरे हिंसानामप दिद्युमा कृधि ॥1॥
तुम्हीं हमारे ध्येय - श्रेय हो हम तुमसे विनती करते हैं ।
नहीं तुम्हारे सिवा है कोई प्रभु रक्षा करो यही कहते हैं ॥1॥
10328
प्रवत्ते अग्ने जनिमा पितूयतः साचीव विश्वा भुवना न्यृञ्जसे ।
प्र सप्तयः प्र सनिषन्त नो धियः पुरश्चरन्ति पशुपाइव त्मना ॥2॥
हे ज्योति - पुञ्ज हे अग्नि- देव तुम्हीं बन्धु हो सखा हमारे ।
तुम जब हविष्यान्न लेते हो परिपोषित होते प्राण हमारे ॥2॥
10329
उत वा उ परि वृक्षणि बप्सद् बहोरग्न उलपस्य स्वधावः ।
उत खिल्या उर्वराणां भवन्ति मा ते हेतिं तविषीं चुक्रुधाम ॥3॥
क्रोध कभी न करना भगवन तुम अतुलित बलशाली हो ।
भूमि सदा ही उर्वर रखना हर खेत में धान की बाली हो ॥3॥
10330
यदुद्वतो निवतो यासि बप्सत्पृथगेषि प्रगर्धिनीव सेना ।
यदा ते वातो अनुवाति शोचिर्वप्तेव श्मश्रु वपसि प्र भूम ॥4॥
हे अग्नि - देव तुम इस पृथ्वी की सदा - सदा रक्षा करना ।
जग में कहीं जले न जंगल सब के सुख का ध्यान रखना ॥4॥
10331
प्रत्यस्य श्रेणयो ददृश्र एकं नियानं बहवो रथासः ।
बाहू यदग्न अनुमर्मृजानो न्यङ्ङुत्तानामन्वेषि भूमिम् ॥5॥
हे अग्नि- देव धधके न धरती मातृभूमि की करो सुरक्षा ।
हे प्रभु प्राञ्जल पावन पावक करना जीव जगत की रक्षा ॥5॥
10332
उत्ते शुष्मा जिहतामुत्ते अर्चिरुत्ते अग्ने शशमानस्य वाजा: ।
उच्छ्व्ञ्चस्व नि नम वर्धमान आ त्वाद्य विश्वे वसवः सदन्तु ॥6॥
हे अग्नि - देव बस यह विनती है कृपा-दृष्टि हरदम रखना ।
क्रोध तुम्हारा सह्य नहीं है शान्त - भाव में ही रहना ॥6॥
10333
अपामिदं न्ययनं समुद्रस्य निवेशनम् ।
अन्यं कृणुष्वेतः पन्थां तेन याहि वशॉं अनु ॥7॥
हे प्रभु जल - थल दोनों में ही उग्र - रूप नहीं धारण करना ।
जल- थल- नभ-जड-जीव सभी को सदा सुरक्षित तुम रखना ॥7॥
10334
आयने ते परायणे दूर्वा रोहन्तु पुष्पिणीः ।
ह्रदाश्च पुण्डरीकाणि समुद्रस्य गृहा मे ॥8॥
हे अग्नि - देव है यही प्रार्थना वनस्पतियों की रक्षा करना ।
सरोवरों में कमल खिला हो अपनी-ऑंच से बचा के रखना ॥8॥
10327
अयमग्ने जरिता त्वे अभूदपि सहसः सूनो नह्य1न्यदस्त्याप्यम् ।
भद्रं हि शर्म त्रिवरूथमस्ति त आरे हिंसानामप दिद्युमा कृधि ॥1॥
तुम्हीं हमारे ध्येय - श्रेय हो हम तुमसे विनती करते हैं ।
नहीं तुम्हारे सिवा है कोई प्रभु रक्षा करो यही कहते हैं ॥1॥
10328
प्रवत्ते अग्ने जनिमा पितूयतः साचीव विश्वा भुवना न्यृञ्जसे ।
प्र सप्तयः प्र सनिषन्त नो धियः पुरश्चरन्ति पशुपाइव त्मना ॥2॥
हे ज्योति - पुञ्ज हे अग्नि- देव तुम्हीं बन्धु हो सखा हमारे ।
तुम जब हविष्यान्न लेते हो परिपोषित होते प्राण हमारे ॥2॥
10329
उत वा उ परि वृक्षणि बप्सद् बहोरग्न उलपस्य स्वधावः ।
उत खिल्या उर्वराणां भवन्ति मा ते हेतिं तविषीं चुक्रुधाम ॥3॥
क्रोध कभी न करना भगवन तुम अतुलित बलशाली हो ।
भूमि सदा ही उर्वर रखना हर खेत में धान की बाली हो ॥3॥
10330
यदुद्वतो निवतो यासि बप्सत्पृथगेषि प्रगर्धिनीव सेना ।
यदा ते वातो अनुवाति शोचिर्वप्तेव श्मश्रु वपसि प्र भूम ॥4॥
हे अग्नि - देव तुम इस पृथ्वी की सदा - सदा रक्षा करना ।
जग में कहीं जले न जंगल सब के सुख का ध्यान रखना ॥4॥
10331
प्रत्यस्य श्रेणयो ददृश्र एकं नियानं बहवो रथासः ।
बाहू यदग्न अनुमर्मृजानो न्यङ्ङुत्तानामन्वेषि भूमिम् ॥5॥
हे अग्नि- देव धधके न धरती मातृभूमि की करो सुरक्षा ।
हे प्रभु प्राञ्जल पावन पावक करना जीव जगत की रक्षा ॥5॥
10332
उत्ते शुष्मा जिहतामुत्ते अर्चिरुत्ते अग्ने शशमानस्य वाजा: ।
उच्छ्व्ञ्चस्व नि नम वर्धमान आ त्वाद्य विश्वे वसवः सदन्तु ॥6॥
हे अग्नि - देव बस यह विनती है कृपा-दृष्टि हरदम रखना ।
क्रोध तुम्हारा सह्य नहीं है शान्त - भाव में ही रहना ॥6॥
10333
अपामिदं न्ययनं समुद्रस्य निवेशनम् ।
अन्यं कृणुष्वेतः पन्थां तेन याहि वशॉं अनु ॥7॥
हे प्रभु जल - थल दोनों में ही उग्र - रूप नहीं धारण करना ।
जल- थल- नभ-जड-जीव सभी को सदा सुरक्षित तुम रखना ॥7॥
10334
आयने ते परायणे दूर्वा रोहन्तु पुष्पिणीः ।
ह्रदाश्च पुण्डरीकाणि समुद्रस्य गृहा मे ॥8॥
हे अग्नि - देव है यही प्रार्थना वनस्पतियों की रक्षा करना ।
सरोवरों में कमल खिला हो अपनी-ऑंच से बचा के रखना ॥8॥