Tuesday 15 October 2013

सूक्त 175

[ऋषि- ऊर्ध्वग्रावा आर्बुदि । देवता- पाषाण । छन्द - गायत्री । ]

10497
प्र वो ग्रावाणः सविता देवः सुवतु धर्मणा ।
धूर्षु      युज्यध्वं                     सुनुत ॥1॥

हे पत्थर तुम निज कौशल से सामर्थ्यानुरुप कुछ कर्म करो ।
सोम - रस के निष्पादन में तुम यथाशक्ति सहयोग  करो ॥1॥

10498
ग्रावाणो अप दुच्छुनामप सेधत दुर्मतिम् ।
उस्त्राः           कर्तन             भेषजम्   ॥2॥

हे  पाहन  तुम  कर्म-वीर  हो  दुख - दुर्मति को दूर  भगाओ ।
सुख-दायक औषधियॉं लेकर रोग-निवारक युक्ति बताओ ॥2॥

10499
ग्रावाण उपरेष्वा महीयन्ते सजोषसः ।
वृष्णे        दधतो          वृष्ण्यम्   ॥3॥

पाषाण  परस्पर  पदवी  पाते  अपनों  को  अपना लेते  हैं ।
सोम  बनाने  में  श्रम  करते  सबको  सुखद  पेय  देते  हैं ॥3॥

10500
ग्रावाणः सविता नु वो देवः सुवतु धर्मणा ।
यजमानाय                       सुन्वते     ॥4॥

परम -पिता परमेश्वर  सबको  वेद - धर्म प्रेषित करते हैं ।
सामर्थ्यानुसार सब कर्म करें यह आशीष दिया करते  हैं ॥4॥ 

2 comments: