Friday, 25 October 2013

सूक्त - 154

[ऋषि- यमी वैवस्वती । देवता- भाववृत्त । छन्द- अनुष्टुप ।]

10394
सोम   एकेभ्यः    पवते   घृतमेक   उपासते ।
येभ्यो मधु प्रधावति तॉंश्चिदेवापि गच्छतात् ॥1॥

हे मनुज गुणों को धारण कर लो जहॉं भी मिले ले लो ज्ञान ।
ज्ञान  के  भी  आयाम  बहुत  हैं  इस  पर भी देना है ध्यान ॥1॥

10395
तपसा   ये  अनाधृष्यास्तपसा   ये  स्वर्ययुः ।
तपो  ये चक्रिरे  महस्तॉंश्चिदेवापि गच्छतात् ॥2॥

तपोनिष्ठ  हो  जाए  जीवन  विपदाओं  से  हम  न  घबरायें ।
केवल अपना स्वार्थ न देखें पर-हित पर निज ध्यान लगायें॥2॥

10396
ये  युध्यन्ते   प्रधनेषु  शूरासो  ये  तनूत्यजः ।
ये वा सहस्त्रदक्षिणास्तॉंश्चिदेवापि गच्छतात् ॥3॥

जन्मभूमि  के  लिए  जो  मनुज  प्राणों  की आहुति देता है ।
यह  भी  यज्ञ  की  पूर्णाहुति  है  मातृभूमि  का  वह  बेटा है ॥3॥

10397
ये  चित्पूर्व  ऋतसाप  ऋतावान  ऋतावृधः ।
पितृन्तपस्वतो यम तॉंश्चिदेवापि गच्छतात् ॥4॥

सत्य- ज्ञान  की  पूँजी  पाकर  सत- पथ  पर  ही  चलना है ।
पितरों का यह पुण्य-प्रयोजन पीढी-पीढी  चलते  रहना  है ॥4॥ 

10398
सहस्त्रणीथा:  कवयो   ये  गोपायन्ति   सूर्यम् ।
ऋषीन् तपस्वतो यम तपोजॉं अपि गच्छतात् ॥5॥

पुरखों  से  आशीष  मिला  है  मिले  हमें अनगिन उपहार ।
तपः  पूत   वे   पितर   हमारे   पुनः  पुनः  आयें  हर   बार ॥5॥

2 comments:

  1. संग्रहण हो, गुण भरा जो,
    मन कलुष सब त्यागना है।

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  2. कितने उदात्त विचार थे वैदिक ऋषि के ..आप एक बहुत ही प्रशंसनीय मुहिम में लगी हैं -बहुत शुभकामनाएं !

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