Saturday, 19 October 2013

सूक्त - 167

[ऋषि - विश्वामित्र,जमदग्नि । देवता- इन्द्र । छन्द- जगती । ]

10462
तुभ्येदमिन्द्र परि षिच्यते मधु त्वं सुतस्य कलशस्य राजसि।
त्वं रयिं पुरुवीरामु नस्कृधि त्वं तपः परितप्याजयः स्वः ॥1॥

हे सूर्य - देव  आलोक - प्रदाता हविष्यान्न प्रेषित करते हैं ।
तुम्हीं  हमें  धन  संतति  देते कृतज्ञता - ज्ञापित करते हैं ॥1॥

10463
स्वर्जितं महि मन्दानमन्धसो हवामहे परि शक्रं सुतॉं उप ।
इमं नो यज्ञमिह बोध्या गहि स्पृधो जयन्तं मघवानमीमहे ॥2॥

हे इन्द्र यज्ञ में तुम भी आओ आवश्यक अन्न-धान ले आओ ।
ईर्ष्या- द्वेष  से  हमें  बचाओ जीवन सत -पथ- पर ले जाओ ॥2॥

10464
सोमस्य राज्ञो वरुणस्य धर्मणि बृहस्पतेरनुमत्या उ शर्मणि ।
तवाहमद्य मघवन्नुपस्तुतौ धातविर्धातः कलशॉं अभक्षयम्॥3॥ 

सानिध्य पा सकें सोमदेव का बृहस्पति से मिल जाए ज्ञान ।
वरुण- देव  की  मिले  तरलता  सूरज  से  सीखें  श्रेष्ठ- दान ॥3॥ 

10465
प्रसूतो  भक्षमकरं चरावपि स्तोमं चेमं  प्रथमः सूरिरुन्मृजे ।
सुते  सातेन  यद्यागमं  वॉं  प्रति  विश्वामित्रजमदग्नी  जमे ॥4॥

हे देव ज्ञान से करें परिष्कृत मन में नित उभरे शुभ -विचार ।
सबके  हित  में  अपना  हित  है  यह  है वेद- ज्ञान का सार ॥4॥    

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