Wednesday, 16 October 2013

सूक्त - 173

[ऋषि-ध्रुव आङ्गिरस । देवता- राजा । छन्द -अनुष्टुप ।]

10486
आ   त्वाहार्षमन्तरेधि       ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलिः ।
विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्तु मा त्वद्राष्ट्रमधि भ्रशत् ॥1॥

प्रजातंत्र  में  जन - राजा  है  उसे सब पर अंकुश रखना है ।
देश का अहित न होने पाए उसे इस चिंतन पर चलना है ॥1॥ 

10487
इहैवैधि माप च्योष्ठा: पर्वत इवाविचाचलिः ।
इन्द्र  इवेह  ध्रुवस्तिष्ठेह   राष्ट्रमु   धारय ॥2॥

हे  प्रजा  तुम्हीं  तो  राजा  हो  कर्तव्य - परायण बन जाओ ।
सूर्य समान अटल रहकर तुम राष्ट्र -प्रगति में जुट जाओ ॥2॥

10488
इममिन्द्रो    अदीधरद्    ध्रुवं  ध्रुवेण   हविषा ।
तस्मै सोमो अधि ब्रवत्तस्मा उ ब्रह्मणस्पतिः ॥3॥

जनता  जागरूक  हो  यदि  तो  देश  में  स्थिरता आती है ।
जग में उसका जस बढता है जनता जनप्रिय बन जाती है ॥3॥

10489
ध्रुवा   द्यौर्ध्रुवा  पृथिवी  ध्रुवासः  पर्वता   इमे ।
ध्रुवं  विश्वमिदं जगद् ध्रुवो राजा विशामयम् ॥4॥

ध्रुव- सम अटल रहे यह धरती प्रजा के हाथ में ही सत्ता हो ।
सबका हो अधिकार बराबर वाशिंगटन हो या कलकत्ता हो ॥4॥

10490
ध्रुवं  ते  राजा  वरुणो   ध्रुवं  देवो बृहस्पतिः ।
ध्रुवं  त  इन्द्रश्चाग्निश्च  राष्टं धारयतां ध्रुवम् ॥5॥ 

कृपा  रहे  नित  वरुण- देव  की  बृहस्पति दें उत्तम ज्ञान ।
अग्नि - देव से यह विनती है स्थिर हो मेरा राष्ट्र - महान ॥5॥

10491
ध्रुवं    ध्रुवेण   हविषाभि   सोमं    मृशामसि ।
अथो  त इन्द्रः केवलीर्विशो  बलिहृतस्करत् ॥6॥

सोम - देव  आशीष  हमें  दें  बढ  जाए  भारत- स्वाभिमान ।
देश के हित में जनता जागे सिरमौर बने फिर हिन्दुस्तान॥6॥



  

1 comment:

  1. राजा की मर्यादायें हैं, निष्ठायें हैं।

    ReplyDelete