[ ऋषि - पतङ्ग प्राजापत्य । देवता- मायाभेद । छन्द - जगती, त्रिष्टुप ।]
10505
पतङ्गमक्तमसुरस्य मायया हृदा पश्यन्ति विपश्चितः ।
समुद्रे अन्तः कवयो वि चक्षते मरीचीनां पदमिच्छन्ति वेधसः॥1॥
माया की महिमा अद्भुत है कवि उसका अनुभव करते हैं ।
पर ज्ञानी - जन उस प्रकाश में प्रभु का ही अनुभव करते हैं ॥1॥
10506
पतङ्गो वाचं मनसा बिभर्ति तां गन्धर्वोSवदद् गर्भे अन्तः ।
तां द्योतमानां स्वर्यं मनीषामृतस्य पदे कवयो नि पान्ति ॥2॥
संप्रेषित करता प्राण शब्द को मन - वाणी से जीव जुडता है ।
विस्तारित होती वाणी नभ में फिर पवन सुरक्षित रखता है ॥2॥
10507
अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम् ।
स सध्रीचीः स विषूचीर्वसान आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तः ॥3॥
अमर-आत्मा भी भिन्न योनि में कर्मानुसार विचरण करती है ।
यह बारम्बार जन्म लेती है उत्तम - अधम देह धरती है ॥3॥
10505
पतङ्गमक्तमसुरस्य मायया हृदा पश्यन्ति विपश्चितः ।
समुद्रे अन्तः कवयो वि चक्षते मरीचीनां पदमिच्छन्ति वेधसः॥1॥
माया की महिमा अद्भुत है कवि उसका अनुभव करते हैं ।
पर ज्ञानी - जन उस प्रकाश में प्रभु का ही अनुभव करते हैं ॥1॥
10506
पतङ्गो वाचं मनसा बिभर्ति तां गन्धर्वोSवदद् गर्भे अन्तः ।
तां द्योतमानां स्वर्यं मनीषामृतस्य पदे कवयो नि पान्ति ॥2॥
संप्रेषित करता प्राण शब्द को मन - वाणी से जीव जुडता है ।
विस्तारित होती वाणी नभ में फिर पवन सुरक्षित रखता है ॥2॥
10507
अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम् ।
स सध्रीचीः स विषूचीर्वसान आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तः ॥3॥
अमर-आत्मा भी भिन्न योनि में कर्मानुसार विचरण करती है ।
यह बारम्बार जन्म लेती है उत्तम - अधम देह धरती है ॥3॥
माया, जीव ईश्वर, एक समन्वय।
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