[ऋषि- अत्रि सांख्य । देवता- अश्विनी कुमार । छन्द- अनुष्टुप ।]
10335
त्यं चिदत्रिमृतजुरमर्थमश्वं न यातवे ।
कक्षीवन्तं यदी पुना रथं न कृणुथो नवम् ॥1॥
हे अश्विनीकुमार तुम्हीं ने काया का जीर्णोध्दार किया ।
कक्षीवान अत्रि ऋषि द्वय को पुनः यौवन प्रदान कर दिया ॥1॥
10336
त्यं चिदश्वं न वाजिनमरेणवो यमत्नत।
दृळहं ग्रन्थिं न वि ष्यतमत्रिं यविष्ठमा रजः ॥2॥
असुरों ने गति को बॉध लिया था तुमने पुनः गॉंठ खोली है ।
स्वतंत्र हुईं फिर देव शक्तियॉं मुक्त-मधुर-स्वर की बोली है ॥2॥
10337
नरा दंसिष्ठावत्रये शुभ्रा सिषासतं धियः ।
अथा हि वां दिवो नरा पुनः स्तोमो न विशसे ॥3॥
हे प्रभु कर्म-कुशल बन जायें तुमसे यह विनती करते हैं ।
हे शुभ्र-वर्ण हे सुंदर नायक गति दो मति दो यह कहते हैं ॥3॥
10338
चिते तद्वां सुराधसा रातिः सुमतिरश्विना ।
आ यन्नः सदने पृथौ समने पर्षथो नरा ॥4॥
तुम्हीं अन्नदाता हो भगवन रक्षा करना सदा हमारी ।
भाव हमारे अति निर्मल हैं स्तुति करते हैं सदा तुम्हारी ॥4॥
10339
युवं भुज्युं समुद्र आ रजसः पार ईङ्खितम् ।
यातमच्छा पतत्रिभिर्नासत्या सातये कृतम् ॥5॥
डूबते हुए को सदा बचाया लेकर हाथों में पतवार ।
धन- ऐश्वर्य हमें भी दो प्रभु समर्थ बनें हम भी हर बार ॥5॥
10340
आ वां सुम्नैः शंयूइव मंहिष्ठा विश्ववेदसा ।
समस्मे भूषतं नरोत्सं न पिप्युषीरिषः ॥6॥
तुम पूजनीय हो सदा हमारे धन-धान हमेशा ही देना ।
कोई अभाव न हो जीवन में बस तुम हमको अपना लेना॥6॥
10335
त्यं चिदत्रिमृतजुरमर्थमश्वं न यातवे ।
कक्षीवन्तं यदी पुना रथं न कृणुथो नवम् ॥1॥
हे अश्विनीकुमार तुम्हीं ने काया का जीर्णोध्दार किया ।
कक्षीवान अत्रि ऋषि द्वय को पुनः यौवन प्रदान कर दिया ॥1॥
10336
त्यं चिदश्वं न वाजिनमरेणवो यमत्नत।
दृळहं ग्रन्थिं न वि ष्यतमत्रिं यविष्ठमा रजः ॥2॥
असुरों ने गति को बॉध लिया था तुमने पुनः गॉंठ खोली है ।
स्वतंत्र हुईं फिर देव शक्तियॉं मुक्त-मधुर-स्वर की बोली है ॥2॥
10337
नरा दंसिष्ठावत्रये शुभ्रा सिषासतं धियः ।
अथा हि वां दिवो नरा पुनः स्तोमो न विशसे ॥3॥
हे प्रभु कर्म-कुशल बन जायें तुमसे यह विनती करते हैं ।
हे शुभ्र-वर्ण हे सुंदर नायक गति दो मति दो यह कहते हैं ॥3॥
10338
चिते तद्वां सुराधसा रातिः सुमतिरश्विना ।
आ यन्नः सदने पृथौ समने पर्षथो नरा ॥4॥
तुम्हीं अन्नदाता हो भगवन रक्षा करना सदा हमारी ।
भाव हमारे अति निर्मल हैं स्तुति करते हैं सदा तुम्हारी ॥4॥
10339
युवं भुज्युं समुद्र आ रजसः पार ईङ्खितम् ।
यातमच्छा पतत्रिभिर्नासत्या सातये कृतम् ॥5॥
डूबते हुए को सदा बचाया लेकर हाथों में पतवार ।
धन- ऐश्वर्य हमें भी दो प्रभु समर्थ बनें हम भी हर बार ॥5॥
10340
आ वां सुम्नैः शंयूइव मंहिष्ठा विश्ववेदसा ।
समस्मे भूषतं नरोत्सं न पिप्युषीरिषः ॥6॥
तुम पूजनीय हो सदा हमारे धन-धान हमेशा ही देना ।
कोई अभाव न हो जीवन में बस तुम हमको अपना लेना॥6॥
सुख जीवन में, स्वस्थ देह हो
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