Wednesday, 30 October 2013

सूक्त - 143

[ऋषि- अत्रि सांख्य । देवता- अश्विनी कुमार । छन्द- अनुष्टुप ।]

10335
त्यं    चिदत्रिमृतजुरमर्थमश्वं    न    यातवे ।
कक्षीवन्तं यदी पुना रथं न कृणुथो नवम् ॥1॥

हे  अश्विनीकुमार  तुम्हीं  ने  काया  का  जीर्णोध्दार  किया ।
कक्षीवान अत्रि ऋषि द्वय को पुनः यौवन प्रदान कर दिया ॥1॥

10336
त्यं    चिदश्वं    न    वाजिनमरेणवो   यमत्नत।
दृळहं ग्रन्थिं न वि ष्यतमत्रिं यविष्ठमा रजः ॥2॥

असुरों  ने  गति को बॉध लिया था तुमने पुनः गॉंठ खोली है ।
स्वतंत्र हुईं फिर देव शक्तियॉं मुक्त-मधुर-स्वर की बोली है ॥2॥

10337
नरा    दंसिष्ठावत्रये   शुभ्रा    सिषासतं   धियः ।
अथा हि वां दिवो नरा पुनः स्तोमो न विशसे ॥3॥

हे प्रभु कर्म-कुशल बन जायें तुमसे यह विनती करते हैं ।
हे शुभ्र-वर्ण हे सुंदर नायक गति दो मति दो यह कहते हैं ॥3॥ 

10338
चिते  तद्वां  सुराधसा रातिः सुमतिरश्विना ।
आ यन्नः सदने पृथौ समने पर्षथो नरा ॥4॥

तुम्हीं  अन्नदाता  हो  भगवन  रक्षा  करना सदा हमारी ।
भाव हमारे अति निर्मल हैं स्तुति करते हैं सदा तुम्हारी ॥4॥

10339
युवं भुज्युं समुद्र आ रजसः पार ईङ्खितम् ।
यातमच्छा पतत्रिभिर्नासत्या सातये कृतम् ॥5॥

डूबते   हुए   को  सदा  बचाया  लेकर   हाथों  में  पतवार ।
धन- ऐश्वर्य  हमें  भी दो प्रभु समर्थ बनें हम भी हर बार ॥5॥

10340
आ वां सुम्नैः शंयूइव मंहिष्ठा विश्ववेदसा ।
समस्मे भूषतं नरोत्सं न पिप्युषीरिषः ॥6॥

तुम  पूजनीय  हो  सदा  हमारे  धन-धान  हमेशा  ही देना ।
कोई अभाव न हो जीवन में बस तुम हमको अपना लेना॥6॥   

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