Friday, 11 October 2013

सूक्त- 188

[ श्येन आग्नेय । देवता - अग्नि । छन्द - गायत्री । ]

10540
प्र नूनं जातवेदसमश्वं हिनोत वाजिनम् ।
इदं           नो                 बर्हिरासदे ॥1॥

हे मनुज अग्नि है अन्नवान सर्वज्ञ और अति व्यापक है ।
हम सादर उन्हें बुलाते हैं उनकी उपासना आवश्यक है ॥1॥

10541
अस्य प्र जातवेदसो विप्रवीरस्य मीळहुषः।
महीमियर्मि                        सुष्टुतिम् ॥2॥

भक्त  अग्नि  की  बडे  प्रेम  से  भाव  से  पूजा  करते  हैं ।
अग्निदेव ही जल देते हैं हम कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं ॥2॥

10542
या रुचो  जातवेदसो  देवत्रा हव्यवाहनीः ।
ताभिर्नो                       यज्ञमिन्वतु ॥3॥

अग्निदेव निज मुख से समिधा औषधि मात्र ग्रहण करते हैं । 
वे अपनी ज्वाला-मुख से आहुतियों का वितरण करते हैं ॥3॥

 

1 comment:

  1. अग्नि ही समस्त ऊर्जाओं का मूल है, अतः उपास्य है।

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