Saturday, 26 October 2013

सूक्त - 152

[ ऋषि- शास भारद्वाज । देवता- इन्द्र । छन्द- अनुष्टुप ।]

10384
शास  इत्था  महॉं  अस्यमित्रखादो अद्भुतः ।
न यस्य हन्यते सखा न जीयते कदा चन ॥1॥

हे  प्रभु सौ-सौ  बार नमन है शुभ-चिन्तन का दे दो वरदान ।
तुम हो अगम अगोचर प्रभुवर सबको दे दो धन और धान ॥1॥

10385
स्वस्तिदा विशस्पतिर्वृत्रहा विमृधो वशी ।
वृषेन्द्रः पुर  एतु नः सोमपा अभयङ्करः ॥2॥

हम सबके पालन-हार तुम्हीं हो सदा करो सबका कल्याण ।
असुर-विनाशक हे जग-पालक कुछ तो दे दो हमें प्रमाण ॥2॥

10386
वि रक्षो वि मृधो जहि वि वृत्रस्य हनू रुज ।
वि मन्युमिन्द्र वृत्रहन्नमित्रस्याभिदासतः ॥3॥

दुष्टों  को  तुम्हीं  दण्ड  देते  हो सज्जन को तुम देते मान ।
दुश्मन  से  रक्षा  करो  हमारी  श्रेष्ठ  गुणों का दे दो दान ॥3॥

10387
वि न इन्द्र मृधो जहि नीचा यच्छ पृतन्यतः ।
यो  अस्मॉं  अभिदासत्यधरं  गमया तमः ॥4॥

जन्म-भूमि हमको प्यारी है गाते हैं सदा उसी का गान ।
चन्दन- सम  माटी है इसकी रहे शाश्वत इसका मान ॥4॥

10388
अपेन्द्र द्विषतो मनोSप जिज्यासतो वधम् ।
वि मन्योः शर्म यच्छ वरीयो यवया वधम् ॥5॥

अहित  हमारा  जो करता है वह भी सुख सम्पन्न रहे ।
कभी  भी  कोई  दुख  न  पाए  और  न कोई कष्ट सहे ॥5॥ 

2 comments:

  1. अहित हमारा जो करता है वह भी सुख सम्पन्न रहे ।
    कभी भी कोई दुख न पाए और न कोई कष्ट सहे ॥

    आप का कार्य वन्दनीय है, इसका अनुवाद कविता में करना ....
    शायद यह अपनी तरह का पहला प्रयास होगा !
    प्रणाम !

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  2. वर्षा के देव, ऊर्जा चक्र की कड़ी..

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