[ऋषि-विवृहा काश्यप । देवता- यक्ष्मनाशन । छन्द- अनुष्टुप । ]
10441
अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि ।
यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काज्जिह्वाया वि वृहामि ॥1॥
हे मनुज तुम्हारे नेत्र-कर्ण को रोग-मुक्त मैं करता हूँ ।
मस्तक-नाक और जिव्हा को पुनर्नवा मैं करता हूँ ॥1॥
10442
ग्रीवाभ्यस्त उष्णिहाभ्यः कीकसाभ्यो अनूक्यात् ।
यक्ष्मं दोषण्य1मंसाभ्यां बाहुभ्यां वि वृहामि ते ॥2॥
ग्रीवा-नाडी ऊर्ध्व-धमनियों को निरोग मैं कर देता हूँ ।
कंधे- भुजा और हाथों का सभी रोग मैं हर लेता हूँ ॥2॥
10443
आन्त्रेभ्यस्ते गुदाभ्यो वनिष्ठोर्हृदयादधि ।
यक्ष्मं मतस्नाभ्यां यक्नःप्लाशिभ्यो वि वृहामि ते ॥3॥
छोटी-बडी ऑंत और दिल से क्षय-रोग दूर भगा देता हूँ ।
गुर्दों-यकृत और तिल्ली का यक्ष्मा-रोग मिटा देता हूँ॥3॥
10444
उरुभ्यां ते अष्ठीवभ्द्यां पाषिर्णभ्यां प्रपदाभ्याम् ।
यक्ष्मं श्रोणिभ्यां भासदाभ्दंससो वि वृहामि ते ॥4॥
कंधा- घुटना- एडी- पंजों का रोग दूर कर देता हूँ ।
नितम्ब- कटि व गुदा -द्वार का रोग सभी हर लेता हूँ ॥4॥
10445
मेहनाद्वनंकरणाल्लोमभ्यस्ते नखेभ्यः ।
यक्ष्मं सर्वस्मादात्मनस्तमिदं वि वृहामि ते ॥5॥
नख को रोम को सभी अँग को रोग- मुक्त मैं करता हूँ ।
समस्त देह नूतन बन जाए मैं ऐसा चिंतन करता हूँ ॥5॥
10446
अङ्गाद्ङ्गाल्लोम्नो जातं पर्वणिपर्वणि ।
यक्ष्मं सर्वस्मादात्मनस्तमिदं वि वृहामि ते ॥6॥
अँग- अँग में रोम- रोम में पोर- पोर में बल भरता हूँ ।
कर्म -योग में जुटे रहो तुम मैं ऐसा उपक्रम करता हूँ ॥6॥
10441
अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि ।
यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काज्जिह्वाया वि वृहामि ॥1॥
हे मनुज तुम्हारे नेत्र-कर्ण को रोग-मुक्त मैं करता हूँ ।
मस्तक-नाक और जिव्हा को पुनर्नवा मैं करता हूँ ॥1॥
10442
ग्रीवाभ्यस्त उष्णिहाभ्यः कीकसाभ्यो अनूक्यात् ।
यक्ष्मं दोषण्य1मंसाभ्यां बाहुभ्यां वि वृहामि ते ॥2॥
ग्रीवा-नाडी ऊर्ध्व-धमनियों को निरोग मैं कर देता हूँ ।
कंधे- भुजा और हाथों का सभी रोग मैं हर लेता हूँ ॥2॥
10443
आन्त्रेभ्यस्ते गुदाभ्यो वनिष्ठोर्हृदयादधि ।
यक्ष्मं मतस्नाभ्यां यक्नःप्लाशिभ्यो वि वृहामि ते ॥3॥
छोटी-बडी ऑंत और दिल से क्षय-रोग दूर भगा देता हूँ ।
गुर्दों-यकृत और तिल्ली का यक्ष्मा-रोग मिटा देता हूँ॥3॥
10444
उरुभ्यां ते अष्ठीवभ्द्यां पाषिर्णभ्यां प्रपदाभ्याम् ।
यक्ष्मं श्रोणिभ्यां भासदाभ्दंससो वि वृहामि ते ॥4॥
कंधा- घुटना- एडी- पंजों का रोग दूर कर देता हूँ ।
नितम्ब- कटि व गुदा -द्वार का रोग सभी हर लेता हूँ ॥4॥
10445
मेहनाद्वनंकरणाल्लोमभ्यस्ते नखेभ्यः ।
यक्ष्मं सर्वस्मादात्मनस्तमिदं वि वृहामि ते ॥5॥
नख को रोम को सभी अँग को रोग- मुक्त मैं करता हूँ ।
समस्त देह नूतन बन जाए मैं ऐसा चिंतन करता हूँ ॥5॥
10446
अङ्गाद्ङ्गाल्लोम्नो जातं पर्वणिपर्वणि ।
यक्ष्मं सर्वस्मादात्मनस्तमिदं वि वृहामि ते ॥6॥
अँग- अँग में रोम- रोम में पोर- पोर में बल भरता हूँ ।
कर्म -योग में जुटे रहो तुम मैं ऐसा उपक्रम करता हूँ ॥6॥
अक्षय तन मन, अक्षय जीवन,
ReplyDeleteअक्षय जीवन का प्रायोजन।