Monday, 21 October 2013

सूक्त - 163

[ऋषि-विवृहा काश्यप । देवता- यक्ष्मनाशन । छन्द- अनुष्टुप । ]

10441
अक्षीभ्यां  ते नासिकाभ्यां  कर्णाभ्यां  छुबुकादधि ।
यक्ष्मं  शीर्षण्यं  मस्तिष्काज्जिह्वाया  वि  वृहामि ॥1॥

हे मनुज तुम्हारे नेत्र-कर्ण को रोग-मुक्त मैं करता हूँ ।
मस्तक-नाक और जिव्हा को पुनर्नवा मैं करता हूँ ॥1॥

10442
ग्रीवाभ्यस्त  उष्णिहाभ्यः  कीकसाभ्यो अनूक्यात् ।
यक्ष्मं  दोषण्य1मंसाभ्यां  बाहुभ्यां  वि  वृहामि ते ॥2॥

ग्रीवा-नाडी ऊर्ध्व-धमनियों को निरोग मैं कर देता हूँ ।
कंधे- भुजा  और हाथों का सभी रोग मैं हर लेता हूँ ॥2॥

10443
आन्त्रेभ्यस्ते         गुदाभ्यो        वनिष्ठोर्हृदयादधि ।
यक्ष्मं मतस्नाभ्यां यक्नःप्लाशिभ्यो वि वृहामि ते ॥3॥ 

छोटी-बडी ऑंत और दिल से क्षय-रोग दूर भगा देता हूँ ।
गुर्दों-यकृत और तिल्ली का यक्ष्मा-रोग मिटा देता हूँ॥3॥

10444
उरुभ्यां   ते  अष्ठीवभ्द्यां   पाषिर्णभ्यां   प्रपदाभ्याम् ।
यक्ष्मं   श्रोणिभ्यां   भासदाभ्दंससो  वि   वृहामि   ते ॥4॥

कंधा- घुटना- एडी- पंजों  का  रोग  दूर  कर  देता  हूँ ।
नितम्ब- कटि व गुदा -द्वार का रोग सभी हर लेता हूँ ॥4॥

10445
मेहनाद्वनंकरणाल्लोमभ्यस्ते                 नखेभ्यः ।
यक्ष्मं    सर्वस्मादात्मनस्तमिदं    वि   वृहामि   ते ॥5॥

नख को रोम को सभी अँग को रोग- मुक्त मैं करता हूँ ।
समस्त देह नूतन बन जाए मैं ऐसा चिंतन करता हूँ ॥5॥

10446
अङ्गाद्ङ्गाल्लोम्नो       जातं         पर्वणिपर्वणि ।
यक्ष्मं     सर्वस्मादात्मनस्तमिदं    वि    वृहामि   ते ॥6॥

अँग- अँग में रोम- रोम में पोर- पोर में बल भरता हूँ ।
कर्म -योग में जुटे रहो तुम मैं ऐसा उपक्रम करता हूँ ॥6॥
 

1 comment:

  1. अक्षय तन मन, अक्षय जीवन,
    अक्षय जीवन का प्रायोजन।

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