Tuesday, 29 October 2013

सूक्त - 146

[ऋषि- देवमुनि ऐरंमद । देवता- अरण्यानी । छन्द- अनुष्टुप ।]

10353
अरण्यान्यरण्यान्यसौ     या    प्रेव     नश्यसि ।
कथा ग्रामं न पृच्छसि न त्वा भीरिव विदन्तीं3॥1॥

अरण्य- भ्रमण में हे वन- देवी जाने  कहॉं तुम खो जाती हो ।
निर्जनवन में भय नहीं लगता क्यों गॉंव में नहीं आती हो॥1॥

10354
वृषारवाय   वदते   यदुपावति   चिच्चिकः ।
आघाटिभिरिव धावयन्नरण्यानिर्महीयते ॥2॥

कोई  बैल  समान  बोलता  कोई  चीं-चीं  सुर  धरता  है ।
मानो वीणा के सुर में वन-देवी का अभिनन्दन करता है ॥2॥

10355
उत    गावइवाद्न्त्युत    वेश्मेव     दृश्यते ।
उतो अरण्यानिः  सायं शकटीरिव सर्जति ॥3॥

इस  गोचर  में  गायें  चरतीं  लता- वितान से  बनता घर ।
शाम  को लकडी  भरी गाडियॉं  जाती  हैं जंगल से शहर ॥3॥ 

10356
गामङ्गैष आ ह्वयति दार्वङ्गैषो अपावधीत् ।
वसन्नरण्यान्यां सायमक्रुक्षदिति मन्यते ॥4॥

गो - माता  को  कोई  बुलाता  कहीं  काष्ट कटता रहता है ।
जो वन में निवास करता है भय-भीत बहुत वह रहता है ॥4॥

10357
न    वा   अरन्यानिर्हन्त्यन्यश्चेन्नाभिगच्छति ।
स्वादोः फलस्य जग्ध्वाय यथाकामं नि पद्यते ॥5॥

यदि मन में हिंसा- भाव न हो वन में शांति से रह सकते हैं ।
जंगल के  मीठे  फल खा कर सुख से जीवन जी सकते हैं॥5॥

10358
आञ्जनगन्धिं सुरभिं बह्वन्नामकृषीवलाम् ।
प्राहं मृगाणां मातरमरण्यानिमशंसिषम् ॥6॥

कस्तूरी  सुगन्धि  फैलाती  कन्द- मूल- फल से भर-पूर ।
मृग की  माता है वन- देवी हो गई भले ही किञ्चित् दूर ॥6॥

 

1 comment:

  1. फल फूल वनस्पति आदि से लगे अरण्य।

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