[ऋषि- देवमुनि ऐरंमद । देवता- अरण्यानी । छन्द- अनुष्टुप ।]
10353
अरण्यान्यरण्यान्यसौ या प्रेव नश्यसि ।
कथा ग्रामं न पृच्छसि न त्वा भीरिव विदन्तीं3॥1॥
अरण्य- भ्रमण में हे वन- देवी जाने कहॉं तुम खो जाती हो ।
निर्जनवन में भय नहीं लगता क्यों गॉंव में नहीं आती हो॥1॥
10354
वृषारवाय वदते यदुपावति चिच्चिकः ।
आघाटिभिरिव धावयन्नरण्यानिर्महीयते ॥2॥
कोई बैल समान बोलता कोई चीं-चीं सुर धरता है ।
मानो वीणा के सुर में वन-देवी का अभिनन्दन करता है ॥2॥
10355
उत गावइवाद्न्त्युत वेश्मेव दृश्यते ।
उतो अरण्यानिः सायं शकटीरिव सर्जति ॥3॥
इस गोचर में गायें चरतीं लता- वितान से बनता घर ।
शाम को लकडी भरी गाडियॉं जाती हैं जंगल से शहर ॥3॥
10356
गामङ्गैष आ ह्वयति दार्वङ्गैषो अपावधीत् ।
वसन्नरण्यान्यां सायमक्रुक्षदिति मन्यते ॥4॥
गो - माता को कोई बुलाता कहीं काष्ट कटता रहता है ।
जो वन में निवास करता है भय-भीत बहुत वह रहता है ॥4॥
10357
न वा अरन्यानिर्हन्त्यन्यश्चेन्नाभिगच्छति ।
स्वादोः फलस्य जग्ध्वाय यथाकामं नि पद्यते ॥5॥
यदि मन में हिंसा- भाव न हो वन में शांति से रह सकते हैं ।
जंगल के मीठे फल खा कर सुख से जीवन जी सकते हैं॥5॥
10358
आञ्जनगन्धिं सुरभिं बह्वन्नामकृषीवलाम् ।
प्राहं मृगाणां मातरमरण्यानिमशंसिषम् ॥6॥
कस्तूरी सुगन्धि फैलाती कन्द- मूल- फल से भर-पूर ।
मृग की माता है वन- देवी हो गई भले ही किञ्चित् दूर ॥6॥
10353
अरण्यान्यरण्यान्यसौ या प्रेव नश्यसि ।
कथा ग्रामं न पृच्छसि न त्वा भीरिव विदन्तीं3॥1॥
अरण्य- भ्रमण में हे वन- देवी जाने कहॉं तुम खो जाती हो ।
निर्जनवन में भय नहीं लगता क्यों गॉंव में नहीं आती हो॥1॥
10354
वृषारवाय वदते यदुपावति चिच्चिकः ।
आघाटिभिरिव धावयन्नरण्यानिर्महीयते ॥2॥
कोई बैल समान बोलता कोई चीं-चीं सुर धरता है ।
मानो वीणा के सुर में वन-देवी का अभिनन्दन करता है ॥2॥
10355
उत गावइवाद्न्त्युत वेश्मेव दृश्यते ।
उतो अरण्यानिः सायं शकटीरिव सर्जति ॥3॥
इस गोचर में गायें चरतीं लता- वितान से बनता घर ।
शाम को लकडी भरी गाडियॉं जाती हैं जंगल से शहर ॥3॥
10356
गामङ्गैष आ ह्वयति दार्वङ्गैषो अपावधीत् ।
वसन्नरण्यान्यां सायमक्रुक्षदिति मन्यते ॥4॥
गो - माता को कोई बुलाता कहीं काष्ट कटता रहता है ।
जो वन में निवास करता है भय-भीत बहुत वह रहता है ॥4॥
10357
न वा अरन्यानिर्हन्त्यन्यश्चेन्नाभिगच्छति ।
स्वादोः फलस्य जग्ध्वाय यथाकामं नि पद्यते ॥5॥
यदि मन में हिंसा- भाव न हो वन में शांति से रह सकते हैं ।
जंगल के मीठे फल खा कर सुख से जीवन जी सकते हैं॥5॥
10358
आञ्जनगन्धिं सुरभिं बह्वन्नामकृषीवलाम् ।
प्राहं मृगाणां मातरमरण्यानिमशंसिषम् ॥6॥
कस्तूरी सुगन्धि फैलाती कन्द- मूल- फल से भर-पूर ।
मृग की माता है वन- देवी हो गई भले ही किञ्चित् दूर ॥6॥
फल फूल वनस्पति आदि से लगे अरण्य।
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