Tuesday 22 October 2013

सूक्त - 162

[ऋषि- रक्षोहा ब्राह्य । देवता - गर्भसंस्त्राव प्रायश्चित । छन्द - अनुष्टुप ।]

10435
ब्रह्मणाग्निः संविदानो रक्षोहा बाधतामितः ।
अमीवा यस्ते गर्भं दुर्णामा योनिमाशये ॥1॥

अग्नि- देव  हम  पर  प्रसन्न हों तन-मन से वे हरें विकार ।
गर्भ सुरक्षित रहे मातृ का शुभ चिन्तन हो शुभ व्यवहार ॥1॥

10436
यस्ते गर्भममीवा दुर्णामा योनिमाशये ।
अग्निष्टं ब्रह्मणा सह निष्क्रव्यादमनीनशत्॥2॥
 
मातृ-शक्ति आकुल-व्याकुल है हे अग्निदेव तुम उन्हें बचाओ।
असुर-शक्ति  बढ रही निरंतर उन्हें सजा दो मार भगाओ ॥2॥

10437
यस्ते हन्ति पतयन्तं निषत्स्नुं यः सरीसृपम् ।
जातं यस्ते जिघांसति तमितो नाशयामसि ॥3॥

निर्भय  होकर  रहें  नारियॉं  तभी  वीर  होगी   संतान ।
सृजन- शक्ति  की  विग्रह  नारी सभी काल में रहे महान ॥3॥

10438
यस्त ऊरु विहरत्यन्तरा दम्पती शये ।
योनिं यो अन्तरारेळिह तमितो नाशयामसि ॥4॥

कोख  रहे  परिपक्व  मात  का  नारी- जीवन  है अनुदान ।
भीतर यदि कोई विकार हो उसका भी हो त्वरित निदान॥4॥

10439
यस्त्वा भ्राता पतिर्भूत्वा जारो भूत्वा निपद्यते ।
प्रजां यस्ते जिघांसति तमितो नाशयामसि ॥5॥

नारी  का  कोई  नहीं है जग में छली जा रही वह  हरदम ।
गर्भ -पात  करवा  देते  हैं  वह रोक सके यह नहीं है दम ॥5॥

10440
यस्त्वा स्वप्नेन तमसा मोहयित्वा निपद्यते ।
प्रजां यस्ते जिघांसति तमितो नाशयामसि ॥6॥

नारी  की  इच्छा  के  विरुध्द  कभी  भी  गर्भपात  न हो ।
सृजन  हेतु  वह  संकल्पित  है उसके साथ धूर्तता न हो ॥6॥  

 

1 comment:

  1. प्रकृति चाहती रही सततता,
    माता तब माध्यम बन आयी।

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