[ऋषि- शची पौलोमी । देवता- आत्म-तुष्टि । छन्द- अनुष्टुप ।]
10419
उदसौ सूर्यो अगादुदयं मामको भगः।
अहं तद्विद्वला पतिमभ्यसाक्षि विषासहिः ॥1॥
हे सूर्य-देवता करो अनुग्रह सुख सौभाग्य प्रदान करो ।
पति का संग रहे जीवन भर यश-वैभव का भण्डार भरो ॥1॥
10420
अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचनी ।
ममेदनु क्रतुं पतिः सेहानाया उपाचरेत् ॥2॥
सबसे आगे सदा रहें हम सबसे हो उत्तम व्यवहार ।
सम्यक चिंतन मनन सदा हो सादा जीवन उच्च विचार॥2॥
10421
मम पुत्राः शत्रुहणोSथो मे दुहिता विराट ।
उताहमस्मि सञ्जया पत्यौ मे श्लोक उत्तमः॥3॥
दया करो हम पर हे प्रभु जी पायें हम उत्तम सन्तान ।
घर में लक्ष्मी का डेरा हो श्रेष्ठ- कर्म से बनें महान ॥3॥
10422
येनेन्द्रो हविषा कृत्व्यभवद् द्युम्न्युत्तमः ।
इदं तदक्रि देवा असपत्ना किलाभुवम् ॥4॥
स्वामित्व रहे अविचल जिससे प्रभु हम वैसा ही कर्म करें ।
यज्ञ भाव मय यह जीवन हो त्याग-सहित उपभोग करें ॥4॥
10423
असपत्ना सपत्नघ्नी जयन्त्यभिभूवरी ।
आवृक्षमन्यासां वर्चो राधो अस्थेयसामिव॥5॥
षड्-रिपुओं से बचे रहें हम सद्-गुण का पहनें आभूषण ।
अनुष्ठान बन जाए जीवन सन्तुष्ट रहे यह मन हर क्षण ॥5॥
10424
समजैषमिमा अहं सपत्नीरभिभूवरी ।
यथाहमस्य वीरस्य विराजानि जनस्य च ॥6॥
प्रेम से जीत लें हम सबका मन कभी किसी से वैर न हो ।
विनती करते हैं हम प्रभु जी मेरे लिए कोई गैर न हो ॥6॥
10419
उदसौ सूर्यो अगादुदयं मामको भगः।
अहं तद्विद्वला पतिमभ्यसाक्षि विषासहिः ॥1॥
हे सूर्य-देवता करो अनुग्रह सुख सौभाग्य प्रदान करो ।
पति का संग रहे जीवन भर यश-वैभव का भण्डार भरो ॥1॥
10420
अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचनी ।
ममेदनु क्रतुं पतिः सेहानाया उपाचरेत् ॥2॥
सबसे आगे सदा रहें हम सबसे हो उत्तम व्यवहार ।
सम्यक चिंतन मनन सदा हो सादा जीवन उच्च विचार॥2॥
10421
मम पुत्राः शत्रुहणोSथो मे दुहिता विराट ।
उताहमस्मि सञ्जया पत्यौ मे श्लोक उत्तमः॥3॥
दया करो हम पर हे प्रभु जी पायें हम उत्तम सन्तान ।
घर में लक्ष्मी का डेरा हो श्रेष्ठ- कर्म से बनें महान ॥3॥
10422
येनेन्द्रो हविषा कृत्व्यभवद् द्युम्न्युत्तमः ।
इदं तदक्रि देवा असपत्ना किलाभुवम् ॥4॥
स्वामित्व रहे अविचल जिससे प्रभु हम वैसा ही कर्म करें ।
यज्ञ भाव मय यह जीवन हो त्याग-सहित उपभोग करें ॥4॥
10423
असपत्ना सपत्नघ्नी जयन्त्यभिभूवरी ।
आवृक्षमन्यासां वर्चो राधो अस्थेयसामिव॥5॥
षड्-रिपुओं से बचे रहें हम सद्-गुण का पहनें आभूषण ।
अनुष्ठान बन जाए जीवन सन्तुष्ट रहे यह मन हर क्षण ॥5॥
10424
समजैषमिमा अहं सपत्नीरभिभूवरी ।
यथाहमस्य वीरस्य विराजानि जनस्य च ॥6॥
प्रेम से जीत लें हम सबका मन कभी किसी से वैर न हो ।
विनती करते हैं हम प्रभु जी मेरे लिए कोई गैर न हो ॥6॥
गृह, पुरुष और प्रकृति का व्यवहार जगत।
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