Sunday, 13 October 2013

सूक्त- 180

[ ऋषि- जय । देवता- इन्द्र । छन्द - त्रिष्टुप । ]

10514
प्र  ससाहिषे  पुरुहूत  शत्रूञ्जयेष्ठस्ते  शुष्म  इह रातिरस्तु ।
इन्द्रा भर  दक्षिणेना वसूनि  पतिः सिन्धूनामसि  रेवतीनाम् ॥1॥

हे  इन्द्र - देव  तुम  तेजस्वी  हो तुमसे मिलता है अनुदान ।
तुम तो  वैभव  के अधिपति हो विविध - विभव का दे दो दान ॥1॥

10515
मृगो न भीमः कुचरो गिविष्ठा: परावत आ जगन्था परस्याः।
सृकं संशाय पविमिन्द्र तिग्मं वि शत्रून्ताळिह वि मृधों नुदस्व॥2॥

हे  इन्द्र - देव  हे  वज्र - हस्त  इन्द्र - प्रस्थ  से  बाहर आओ । 
सिंह के सदृश  साहसी  हो रिपु - दमन करो और हमें  बचाओ ॥2॥

10516
इन्द्र      क्षत्रमभि    वाममोजोSजायथा   वृषभ    चषणीनाम् ।
अपानुदो    जनममित्रयन्तमुरुं   देवेभ्यो   अकृणोरु    लोकम् ॥3॥

हे  इन्द्र -  देव  तुम  समर्थ  हो  रिपुओं  से  रक्षा करो हमारी ।
तुमने   स्वर्ग   रचा  है   सुन्दर  अब  इच्छा  पूरी  करो  हमारी ॥3॥

 

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