Saturday, 12 October 2013

सूक्त - 183

[ ऋषि - प्रजावान प्राजापत्य । देवता - यजमान, यजमान-पत्नी, होत्र । ]

10523
अपश्यं त्वा मनसा चेकितानं तपसो जातं तपसो विभूतम् ।
इह प्रजामिह रयिं रराणः प्र जायस्व प्रजया पुत्रकाम ॥1॥

हे मनुज तपस्वी और यशस्वी तुम शुभ कर्मों के ज्ञाता हो ।
इस लोक में धन-संतति पाओ वह पाओ जो मन भाता हो॥1॥

10524
अपश्यं त्वा मनसा दीध्यानां स्वायां तनू ऋत्व्ये नाधमानाम् ।
उप  मामुच्चा युवतिर्बभूया: प्र  जायस्व  प्रजया  पुत्रकामे ॥2॥

हे  नारी  तुम  रूपवती  हो  मैं  सहृदय आमंत्रित करता हूँ ।
मातृत्व - पूर्ण  जीवन  हो  तेरा  मैं  यही निवेदन करता हूँ ॥2॥

10525
अहं      गर्भमदधामोषधीष्वहं       विश्वेषु    भुवनेष्वन्तः ।
अहं   प्रजा अजनयं पृथिव्यामहं  जनिभ्यो अपरीषु पुत्रान् ॥3॥

नर और नारी जब मिलते हैं तब गर्भाधान हुआ करता है ।
वनस्पतियों और सब प्राणी का वंश- वृक्ष बढने लगता है ॥3॥

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