Thursday, 17 October 2013

सूक्त - 170

[ ऋषि - विभ्राट्  सौर्य । देवता-सूर्य । छन्द -जगती ,आस्तारपंक्ति ।]

10474
विभ्राड् बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविह्रुतम् ।
वातजूतो यो अभिरक्षति त्मना प्रजा:पुपोष पुरुधा वि राजति॥1॥

भानु - भाव  के  ही  भूखे  है  हमें  दीर्घ  - जीवन  देते  है ।
पवन -  देव  के माध्यम से वे हम सबकी रक्षा करते हैं ॥1॥

10475
विभ्राड् बृहत्सुभृतं वाजसातमं धर्मन्दिवो धरुणे सत्यमर्पितम् ।
अमित्रहा  वृत्रहा  दस्युहतमं  ज्योतिर्जज्ञे असुरहा  सपत्नहा ॥2॥

हे  आदित्य अन्न - जल  देना  जिससे  बलशाली बन जायें ।
मन  से  तमस  दूर  कर  देना  हम प्रकाश - पुञ्ज कहलायें ॥2॥

10476
इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिरुत्तमं विश्वजिध्दनजिदुच्यते बृहत् ।
विश्वभ्राड् भ्राजो महि सूर्यो दृश उरु पप्रथे सह ओजो अच्युतम्॥3॥

तुम्हीं प्रतिष्ठित दुनियॉं भर में धन - वैभव के तुम्हीं प्रदाता ।
तुम्हीं ओज को धारण करते तुम अविनाशी भाग्य-विधाता ॥3॥

10477
विभ्राजञ्ज्योतिषा         स्व1रगच्छो     रोचनं         दिवः ।
येनेमा  विश्वा  भुवनान्याभृता  विश्वकर्मणा  विश्वदेव्यावता ॥4॥

प्रभु तुम दिव्य - लोक गामी हो विश्व तुम्हीं से आलोकित है ।
तुम संरक्षक  हो दुनियॉं  के जग तुमसे  पोषित  पुलकित है ॥4॥  

2 comments:

  1. ऊर्जा और गतिमयता का एकमात्र स्रोत

    ReplyDelete
  2. हे आदित्य अन्न - जल देना जिससे बलशाली बन जायें ।
    मन से तमस दूर कर देना हम प्रकाश - पुञ्ज कहलायें ॥2॥

    कितनी ओजस्वी प्रार्थना..आभार !

    ReplyDelete