Thursday, 24 October 2013

सूक्त - 156

[ऋषि- केतु आग्नेय । देवता- अग्नि । छन्द- गायत्री । ]

10404
अग्निं हिन्वन्तु नो धियः सप्तिमाशुमिवाजिषु ।
तेन                जेष्म               धनन्धनम् ॥1॥ 

हे  अग्नि-देव  तुम  ही  प्रेरक  हो जीवन यह गति से भर दो ।
सब कारज हो सिध्द हमारा मन में शुभ-शुभ विचार भर दो ॥1॥

10405
यया  गा आकरामहे सेनयाग्ने तवोत्या ।
तां          नो       हिन्व        मधत्तये ॥2॥ 

विघ्न-विनाशक  तुम्हीं  हो  प्रभुवर सदा सुरक्षित हो जीवन ।
ज्ञान-वान  हम  बनें  साथ  में  यश-वैभव  हो  धन - यौवन ॥2॥

10406
आग्ने स्थूरं रयिं भर पृथुं गोमन्तमश्विनम् ।
अङ्धि        खं        वर्तया         पणिम् ॥3॥ 

हे अग्नि-देव पशु-धन हो घर में वैभव-लक्ष्मी का हो वरदान ।
संतुलित वेग से जल बरसे हर घर को मिले अन्न का दान॥3॥

10407
अग्ने नक्षत्रमजरमा सूर्यं रोहयो दिवि ।
दधज्ज्योतिर्जनेभ्यः                    ॥4॥

हे  प्रकाश-पुञ्ज  हे  पावक  तुम ही तो हो आलोक-वितान ।
मन से तमस हटाओ प्रभुवर दिव्य-ज्योति का दे दो दान ॥4॥

10408
अग्ने केतुर्विशामसि प्रेष्ठः श्रेष्ठ उपस्थसत् ।
बोधा         स्तोत्रे       वयो       दधत्  ॥5॥

हे अग्नि-देव तुम ज्ञान - प्रदाता अन्तः-आलोकित करते हो।
हम सब को पाथेय चाहिए आश्रय तुम्हीं  दिया करते हो ॥5॥

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