[ऋषि - अनिल वातायन । देवता - वायु । छन्द त्रिष्टुप । ]
10466
वातस्य नु महिमानं रथस्य रुजन्नेति स्तनयन्न्स्य घोषः ।
दिविस्पृग्यात्यरुणानि कृन्वन्नुतो एति पृथिव्या रेणुमस्यन् ॥1॥
पवन - देव की महिमा न्यारी वे हैं तीव्र - वेग के स्वामी ।
अनन्त आयाम हैं अनिल अँग में विविध राग के वे अनुगामी ॥1॥
10467
सम्प्रेरते अनु वातस्य विष्ठा ऐनं गच्छन्ति समनं न योषा: ।
ताभिः सयुक्सरथं देव ईयतेSस्य विश्वस्य भुवनस्य राजा ॥2॥
पवन- देव के तीव्र - वेग से सब कुछ अस्त- व्यस्त हो जाता ।
तरु है उनका राज - सिंहासन जग का राजा शोभा पाता ॥2॥
10468
अन्तरिक्षे पथिभिरीयमानो न नि विशते कतमच्चनाहः ।
अपां सखा प्रथमजा ऋतावा क्व स्विज्जातः कुत आ बभूव॥3॥
अन्तरिक्ष शुभ मार्ग है उनका वायु नहीं करते विश्राम ।
हे पवन-देव तुम ही जग-जीवन जगत तुम्हारा है अभिराम ॥3॥
10469
आत्मा देवानां भुवनस्य गर्भो यथावशं चरति देव एषः ।
घोषा इदस्य श्रृण्विरे न रूपं तस्मै वाताय हविषा विधेम ॥4॥
पवन प्रति-पल पावन पग धरता अविरल उसकी चाल निराली ।
स्वर - समीर है मधुर- भयानक यह शब्दों की पूजा- थाली ॥4॥
10466
वातस्य नु महिमानं रथस्य रुजन्नेति स्तनयन्न्स्य घोषः ।
दिविस्पृग्यात्यरुणानि कृन्वन्नुतो एति पृथिव्या रेणुमस्यन् ॥1॥
पवन - देव की महिमा न्यारी वे हैं तीव्र - वेग के स्वामी ।
अनन्त आयाम हैं अनिल अँग में विविध राग के वे अनुगामी ॥1॥
10467
सम्प्रेरते अनु वातस्य विष्ठा ऐनं गच्छन्ति समनं न योषा: ।
ताभिः सयुक्सरथं देव ईयतेSस्य विश्वस्य भुवनस्य राजा ॥2॥
पवन- देव के तीव्र - वेग से सब कुछ अस्त- व्यस्त हो जाता ।
तरु है उनका राज - सिंहासन जग का राजा शोभा पाता ॥2॥
10468
अन्तरिक्षे पथिभिरीयमानो न नि विशते कतमच्चनाहः ।
अपां सखा प्रथमजा ऋतावा क्व स्विज्जातः कुत आ बभूव॥3॥
अन्तरिक्ष शुभ मार्ग है उनका वायु नहीं करते विश्राम ।
हे पवन-देव तुम ही जग-जीवन जगत तुम्हारा है अभिराम ॥3॥
10469
आत्मा देवानां भुवनस्य गर्भो यथावशं चरति देव एषः ।
घोषा इदस्य श्रृण्विरे न रूपं तस्मै वाताय हविषा विधेम ॥4॥
पवन प्रति-पल पावन पग धरता अविरल उसकी चाल निराली ।
स्वर - समीर है मधुर- भयानक यह शब्दों की पूजा- थाली ॥4॥
स्तुत्य है कार्य आपका
ReplyDeleteअनुवाद में मूल भाव पूर्णत: संरक्षित है।
ReplyDeleteअभिनंदन, शकुंतला जी !
गतिमयता की प्रेरक पावन,
ReplyDeleteबहे पवन, आमन्त्रित सावन।