Friday, 18 October 2013

सूक्त - 168

[ऋषि - अनिल वातायन । देवता - वायु । छन्द त्रिष्टुप । ]

10466
वातस्य  नु  महिमानं  रथस्य  रुजन्नेति स्तनयन्न्स्य घोषः ।
दिविस्पृग्यात्यरुणानि कृन्वन्नुतो एति पृथिव्या रेणुमस्यन् ॥1॥

पवन - देव  की  महिमा  न्यारी  वे  हैं  तीव्र - वेग  के  स्वामी ।
अनन्त आयाम हैं अनिल अँग में विविध राग के वे अनुगामी ॥1॥

10467
सम्प्रेरते अनु वातस्य विष्ठा ऐनं गच्छन्ति समनं न योषा: ।
ताभिः सयुक्सरथं देव ईयतेSस्य विश्वस्य भुवनस्य राजा ॥2॥

पवन- देव के तीव्र - वेग से सब कुछ अस्त- व्यस्त हो जाता ।
तरु  है  उनका  राज - सिंहासन जग का राजा शोभा पाता ॥2॥

10468
अन्तरिक्षे पथिभिरीयमानो न नि विशते कतमच्चनाहः ।
अपां सखा प्रथमजा ऋतावा क्व स्विज्जातः कुत आ बभूव॥3॥ 

अन्तरिक्ष  शुभ  मार्ग  है  उनका  वायु  नहीं  करते  विश्राम ।
हे पवन-देव तुम ही जग-जीवन जगत तुम्हारा है अभिराम ॥3॥

10469
आत्मा  देवानां  भुवनस्य  गर्भो  यथावशं  चरति  देव  एषः ।
घोषा  इदस्य  श्रृण्विरे  न  रूपं  तस्मै वाताय हविषा विधेम ॥4॥

पवन प्रति-पल पावन पग धरता अविरल उसकी चाल निराली ।
स्वर - समीर है मधुर- भयानक यह शब्दों की  पूजा- थाली  ॥4॥

 

3 comments:

  1. स्तुत्य है कार्य आपका

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  2. अनुवाद में मूल भाव पूर्णत: संरक्षित है।
    अभिनंदन, शकुंतला जी !




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  3. गतिमयता की प्रेरक पावन,
    बहे पवन, आमन्त्रित सावन।

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