Tuesday, 22 October 2013

सूक्त- 161

[ऋषि-यक्ष्मनाशन प्राजापत्य ।देवता-इन्द्र । छन्द-त्रिटुप, अनुष्टुप ।]

10430
मुञ्चामि त्वा हविषा जीवनाय कमज्ञातयक्ष्मादुत राजयक्ष्मात्।
ग्राहिर्जग्राह  यदि  वैतदेनं  तस्या इन्द्राग्नी प्र मुमुक्तमेनम्  ॥1॥

हे मनुज रोग-मुक्त हो जाओ पाओ सदा स्वस्थ तन - मन ।
रोग-शोक से दूर ही रहना सदा - सदा हो शुभ चिन्तन ॥1॥

10431
यदि क्षितायुर्यदि वा परेतो यदि मृत्योरन्तिकं नीत एव ।
तमा हरामि निऋते रुपस्थादस्पार्षमेनं शतशारदाय ॥2॥

कोई  कितना  भी  बीमार  हो  हो  चाहे  वह  मरणासन्न ।
तो भी निरोग वह हो सकता है पा सकता है पुष्ट तन-मन॥2॥

10432
सहस्त्राक्षेण    शतशारदेन  शतायुषा    हविषाहार्षमेनम् ।
शतं  यथेमं  शरदो  नयातीन्द्रो विश्वस्य दुरितस्य पारम् ॥3॥

अग्नि -देव  को  हविष्यान्न दें यह भी है उत्तम उपचार ।
दीर्घ-आयु फिर मिल जाता है शुध्द भाव हो शुभ व्यवहार॥3॥ 

10433
शतं जीव शरदो वर्धमानः शतं हेमन्ताञ्छतमु वसन्तान् ।
शतमिन्द्राग्नी सविता बृहस्पतिःशतायुषा हविषेमं पुनर्दुः॥4॥

हे मनुज रोग-मुक्त हो कर सौ बरस जियो अब खुश होकर।
शुभ-चिन्तन शुभ मनन सदा हो जो चाहो बॉंटो खुश होकर॥4॥

10434
आहार्षं   त्वाविदं   त्वा   पुनरागा:  पुनर्नव ।
सर्वांङ्ग सर्वं ते चक्षुः सर्वमायुश्च तेSविदम्॥5॥

हर दिन को नया जन्म समझो तुम सोच समझ कर कर्म करो ।
दुनियॉं देखो और उससे सीखो निज-निष्ठा का अनुकरण करो॥5॥ 

 

1 comment:

  1. स्वस्थ शरीर, स्फुरित मन और शत वर्ष का हर्ष।

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