Wednesday, 30 October 2013

सूक्त - 145

[ऋषि- इन्द्राणी । देवता- उपनिषत् । छन्द- अनुष्टुप-पङ्क्ति ।]

10347
इमां   खनाम्योषधिं   वीरुधं  बलवत्तमाम् ।
यया सपत्नीं बाधते यया संविन्दते पतिम्॥1॥

जीवन- दायिनी  ये औषधियॉ  तन-मन का पोषण करती हैं ।
अधिकतर लता-मयी औषधियॉ रूप-राशि वर्धित करती हैं॥1॥

10348
उत्तान - पर्णे   सुभगे   देवजूते  सहस्वति ।
सपत्नीं  मे  परा  धम पतिं मे केवलं कुरु ॥2॥

हे  उत्तान - पर्ण  औषधियॉ  रूपवती  तुम  मुझे  बना  दो ।
प्रसन्न रख  सकूँ अपने पति को ऐसा रूप और गुण दे दो ॥2॥

10349
उत्तराहमुत्तर                  उत्तरेदुत्तराभ्यः ।
अथा  सपत्नी  या ममाधरा साधराभ्यः ॥3॥

हे  सञ्जीवनी औषधि  देवी  तुम मुझे श्रेष्ठ-उत्कृष्ट बनाओ ।
मेरे भीतर के षड्-रिपु को शीघ्राति-शीघ्र तुम दूर भगाओ ॥3॥

10350
नह्यस्या नाम गृभ्णानि नो अस्मिन्रमते जने ।
परामेव    परावतं    सपत्नीं    गमयामसि ॥4॥

मैं  पति  की  प्यारी  बन  जाऊँ  पाऊँ  उनका पावन प्यार ।
जनम-जनम तक साथ रहें कभी भी कम न हो यह ज्वार॥4॥

10351
अहमस्मि सहमानाथ त्वमसि सासहिः ।
उभे  सहस्वती  भूत्वी  सपत्नीं मे सहावहै ॥5॥

हे  देवी  तुम  भी  साथ  निभाना  पति-परमेश्वर  हों न दूर ।
तुम  समर्थ हो  मुझे  भी  देना  पिया-प्रीत  पाऊँ भर-पूर ॥5॥

10352
उप     तेSधां      सहमानामभि       त्वाधां         सहीयसा ।
मामनु प्र ते मनो वत्सं गौरिव धावतु पथा वारिव धावतु ॥6॥

सौन्दर्य-स्वामिनी  मैं  बन  जाऊँ  ऐसा  सुन्दर  देना रूप । 
रूप  के  संग  मधुरता  देना  अक्षय  हो  सौन्दर्य- अनूप ॥6॥  

 

1 comment:

  1. ये प्रार्थनायें निश्चय ही पूरी करना देव।

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