Friday, 11 October 2013

सूक्त- 187

[ऋषि - वत्स आग्नेय । देवता - अग्नि । छन्द - गायत्री । ]

10535
प्राग्नये वाचमीरय वृषभाय क्षितिनाम् ।
स     नः    पर्षदति                द्विषः ॥1॥

पूर्ण - काम यदि नर चाहे वह अग्निदेव का करे स्तवन ।
वे सदा  सुरक्षा देते  हैं स्तुति से  पायें उज्ज्वल मन ॥1॥

10536
यः परस्याः परावतस्तिरो धन्वातिरोचते ।
स        नः       पर्षदति             द्विषः ॥2॥

जो अग्नि - देव  पूजा - वेदी पर करते  हैं पूजा स्वीकार ।
वे नित- प्रति रक्षा करें हमारी उन्हें नमन है बारंबार ॥2॥

10537
यो रक्षांसि निजूर्वति वृषा शुक्रेण शोचिषा ।
स         नः         पर्षदति           द्विषः ॥3॥

अग्नि - देव  ही  जल  देते  हैं  असुरों को मार गिराते हैं ।
वे  राग- द्वेष से हमें बचाते सत - पथ वही दिखाते हैं ॥3॥

10538
यो विश्वाभि विपश्यति भुवना सं च पश्यति ।
स            नः            पर्षदति        द्विषः ॥4॥

जो अग्निदेव सब लोकों का अवलोकन पृथक्-पृथक् करते हैं।
वे षड् - रिपु से हमें बचायें समभाव सभी पर जो रखते हैं ॥4॥

10539
यो अस्य पारे  रजसः शुक्रो अग्निरजायत ।
स              नः        पर्षदति         द्विषः ॥5॥ 

हे  दिव्य  देह - धारी  भगवन्  तुम  तेज - पुँज के हो प्रतीक ।
सदा हमारी  रक्षा करना हे अन्तरिक्ष -  स्वामी  निर्भीक ॥5॥ 
 

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