Tuesday 22 October 2013

सूक्त - 160

[ऋषि- पूरण वैश्वामित्र । देवता- इन्द्र । छन्द - त्रिष्टुप । ]

10425
तीव्रस्याभिवयसो  अस्य  पाहि  सर्वरथा  वि  हरी  इह मुञ्च ।
इन्द्र मा त्वा यजमानासो अन्ये नि रीरमन्तुभ्यमिमे सुतासः॥1॥

हे  सेनापति तुम करो चौकसी यह धन-धान्य से पूर्ण भूमि है ।
दुश्मन  कहीं  तुम्हें  न  ठग  ले  रक्षा  कर  यह  मातृभूमि  है ॥1॥

10426
तुभ्यं  सुतास्तुभ्यमु  सोत्वासस्त्वां गिरः श्वात्र्या आ ह्वयन्ति ।
इन्द्रेदमद्य  सवनं  जुषाणो  विश्वस्य  विद्वॉं  इह  पाहि सोमम् ॥2॥

यश- वैभव  हैं  सभी  तुम्हारे  आज  भी  हैं  और  हैं ये कल भी ।
निज कर्म-योग की कर लो चिंता रहे सुरक्षित कल भी अब भी॥2॥

10427
य   उशता   मनसा   सोममस्मै   सर्वह्रदा  देवकामः  सुनोति ।
न गा इन्द्रस्तस्य परा ददाति प्रशस्तमिच्चारुमस्मै कृणोति ॥3॥

जो यज्ञ-भाव से पूर्ण-ह्रदय से प्रभु को भोग अर्पित करता है ।
उसका  संकल्प  पूर्ण  होता  है  उसका  राष्ट्र  प्रगति  करता है ॥3॥

10428
अनुस्पष्टो भवत्येषो अस्य यो अस्मै रेवान्न सुनोति सोमम् ।
निररत्नौ    मघवा   तं    दधाति   ब्रह्मद्विषो    हन्त्यनानुदिष्टः ॥4॥

जो  प्रभु  का  चिन्तन  करता  है  वह  सदा सुरक्षित रहता है ।
ज्ञान-वान वह बन जाता है दिनों-दिन वह  उन्नति करता है ॥4॥

10429
अश्वायन्तो  गव्यन्तो  वाजयन्तो  हवामहे  त्वोपगन्तवा  उ ।
आभूषन्तस्ते   सुमतौ   नवायां   वयमिन्द्र  त्वा  शुनं  हुवेम ॥5॥

हे  सेनापति  संकल्प  करो  तुम  अस्त्र - शस्त्र की करो सुरक्षा ।
बल - शाली  सेना  हो  अपनी  राष्ट्र - यज्ञ  की  सदा  हो  रक्षा ॥5॥

    

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