Sunday, 13 October 2013

सूक्त- 182

[ ऋषि - तपुमूर्धा बार्हस्पत्य । देवता - बृहस्पति| । छन्द- त्रिष्टुप् । ]

10520
बृहस्पतिर्नयतु  दुर्गहा  तिरः  पुनर्नेषदघशंसाय मन्म ।
क्षिपदशस्तिमप  दुर्मतिं  हन्नथा करद्यजमानाय शं यो: ॥1॥

देव- बृहस्पति बुध्दि -प्रदाता शुभ -चिन्तन से भर दो मन ।
रोग - शोक मिट जाए ऐसा चिंता -विहीन कर दो चिंतन ॥1॥

10521
नराशंसो नोSवतु प्रयाजे शं नो अस्त्वनुयाजो हवेषु ।
क्षिपदशस्तिमप  दुर्मतिं  हन्नथा  करद्यजमानाय  शं योः ॥2॥

सज्जनता हो मेरा गहना और अशुभ निवारण हो जाये ।
हे अग्निदेव निर्भीक बनाओ जीवन परम शान्ति बन जाये ॥2॥ 

10522
तपुमूर्धा  तपतु  रक्षसो  ये  ब्रह्मद्विषः  शरवे  हन्तवा  उ ।
क्षिपदशस्तिमप  दुर्मतिं  हन्नथा  करद्यजमानाय  शं  योः ॥3॥

हे गुरु रिपु से तुम्हीं बचाओ शुभ - भावों से भर दो मेरा मन ।
हम शुध्द बनें हम बुध्द बनें सुख-शांति भरा हो यह जीवन ॥3॥  

1 comment:

  1. ज्ञान समस्त जड़ता को नष्ट करे।

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