Sunday, 13 October 2013

सूक्त- 181

[ ऋषि -1 वासिष्ठ,2 भारद्वाज, 3 धर्मसौर्य ।देवता -विश्वेदेवा ।छन्द -त्रिष्टुप ।]

10517
प्रथश्च यस्य सप्रथश्च नामानुष्टुभस्य हविषो हविर्यत् ।
धातुर्द्युतानात्सवितुश्च विष्णो रथन्तरमा जभारा वसिष्ठः ॥1॥

वसिष्ठ - भारद्वाज  ऋषि  ने  अनुष्टुप  से  तब  हवन  किया ।
धाता-सविता और विष्णु ने रथन्तर साम को ग्रहण किया ॥1॥

10518
अविन्दन्ते अतिहितं  यदासीद्यज्ञस्य धाम परमं गुहा यत् ।
धातुर्द्युतानात्सवितुश्च विष्णोर्भरद्वाजो  बृहदा  चक्रे  अग्नेः ॥2॥

जो यज्ञाधार निगूढ बहुत था सविता को मिला था वृहत् साम ।
धाता- सविता -विष्णु- अग्नि  से भारद्वाज फिर लाए साम ॥2॥

10519
तेSविन्दन्मनसा  दीध्याना  यजुः  ष्कन्नं  प्रथमं  देवयानम् ।
धातुर्द्युतानात्सवितुश्च    विष्णोरा       सूर्यादभरन्धर्ममेते ॥3॥ 

विद्वत् - जन  ने  तपो - शक्ति  से याग - कर्म को प्राप्त किया ।
धाता - विष्णु और सविता से पुनीत धर्म को ग्रहण किया ॥3॥ 

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