[ऋषि- सुवेदस शैरीष । देवता- इन्द्र । छन्द- जगती , त्रिष्टुप ।]
10359
श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवेSहन्यद्वृत्रं नर्यं विवेरपः ।
उभे यत्त्वा भवतो रोदसी अनु रेजते शुष्मात्पृथिवी चिदद्रिवः॥1॥
भोर में जब मानव उठता है तो जो पहला चिन्तन होता है ।
उस चिन्तन पर मेरी श्रध्दा है उस पर ही भरोसा होता है ॥1॥
10360
त्वं मायाभिरनवद्य मायिनं श्रवस्यता मनसा वृत्रमर्दयः ।
त्वामिन्नरो वृणते गविष्टिषु त्वां विश्वासु हव्यास्विष्टिषु ॥2॥
हे प्रभु तुम ही जल देते हो जल से ही अन्न उपजता है ।
गोधन भी तुम ही देते हो हर मानुष तुम्हें प्यार करता है ॥2॥
10361
ऐषु चाकन्धि पुरुहूत सूरिषु वृधासो ये मघवन्नानशुर्मघम् ।
अर्चन्ति तोके तनये परिष्टिषु मेधसाता वाजिनमह्रये धने॥3॥
हे इन्द्र- देव तुम आ जाओ हम डगर निहारते बैठे हैं ।
हमको तुम धन- संतति दे दो हम तेरा आवाहन करते हैं ॥3॥
10362
स इन्नु रायः सुभृतस्य चाकनन्मदं यो अस्य रंह्यं चिकेतकि ।
त्वावृधो मघवन्दाश्वध्वरो मक्षू स वाजं भरते धना नृभिः ॥4॥
हे तेजस्वी इन्द्र- देव तुम सोम- पान कर लो प्रभु- वर ।
अपनी पूजा से खुश होकर जगती को बॉटो सुख-सुखकर ॥4॥
10363
त्वं शर्धाय महिना गृणान उरु कृधि मघवञ्छग्धि रायः ।
त्वं नो मित्रो वरुणो न मायी पित्वो न दस्म दयसे विभक्ता॥5॥
हे प्रभु हम विनती करते हैं हमको बल-सम्पन्न बनाओ ।
तुम मित्रवरुण सम पूजनीय हो यश-वैभव हमको दे जाओ॥5॥
10359
श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवेSहन्यद्वृत्रं नर्यं विवेरपः ।
उभे यत्त्वा भवतो रोदसी अनु रेजते शुष्मात्पृथिवी चिदद्रिवः॥1॥
भोर में जब मानव उठता है तो जो पहला चिन्तन होता है ।
उस चिन्तन पर मेरी श्रध्दा है उस पर ही भरोसा होता है ॥1॥
10360
त्वं मायाभिरनवद्य मायिनं श्रवस्यता मनसा वृत्रमर्दयः ।
त्वामिन्नरो वृणते गविष्टिषु त्वां विश्वासु हव्यास्विष्टिषु ॥2॥
हे प्रभु तुम ही जल देते हो जल से ही अन्न उपजता है ।
गोधन भी तुम ही देते हो हर मानुष तुम्हें प्यार करता है ॥2॥
10361
ऐषु चाकन्धि पुरुहूत सूरिषु वृधासो ये मघवन्नानशुर्मघम् ।
अर्चन्ति तोके तनये परिष्टिषु मेधसाता वाजिनमह्रये धने॥3॥
हे इन्द्र- देव तुम आ जाओ हम डगर निहारते बैठे हैं ।
हमको तुम धन- संतति दे दो हम तेरा आवाहन करते हैं ॥3॥
10362
स इन्नु रायः सुभृतस्य चाकनन्मदं यो अस्य रंह्यं चिकेतकि ।
त्वावृधो मघवन्दाश्वध्वरो मक्षू स वाजं भरते धना नृभिः ॥4॥
हे तेजस्वी इन्द्र- देव तुम सोम- पान कर लो प्रभु- वर ।
अपनी पूजा से खुश होकर जगती को बॉटो सुख-सुखकर ॥4॥
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त्वं शर्धाय महिना गृणान उरु कृधि मघवञ्छग्धि रायः ।
त्वं नो मित्रो वरुणो न मायी पित्वो न दस्म दयसे विभक्ता॥5॥
हे प्रभु हम विनती करते हैं हमको बल-सम्पन्न बनाओ ।
तुम मित्रवरुण सम पूजनीय हो यश-वैभव हमको दे जाओ॥5॥
सुख का हो व्यापक निर्धारण,
ReplyDeleteसृष्टि बनी यह नहीं अकारण।