Tuesday, 29 October 2013

सूक्त - 147

[ऋषि- सुवेदस शैरीष । देवता- इन्द्र । छन्द- जगती , त्रिष्टुप ।]

10359
श्रत्ते    दधामि    प्रथमाय    मन्यवेSहन्यद्वृत्रं    नर्यं   विवेरपः ।
उभे यत्त्वा भवतो रोदसी अनु रेजते शुष्मात्पृथिवी चिदद्रिवः॥1॥

भोर में जब मानव उठता है तो जो पहला चिन्तन होता है ।
उस चिन्तन पर मेरी श्रध्दा है उस पर ही भरोसा होता है ॥1॥

10360
त्वं मायाभिरनवद्य मायिनं श्रवस्यता मनसा वृत्रमर्दयः ।
त्वामिन्नरो वृणते गविष्टिषु त्वां विश्वासु हव्यास्विष्टिषु ॥2॥

हे  प्रभु तुम  ही जल  देते हो  जल से ही अन्न उपजता है ।
गोधन भी तुम ही देते हो हर मानुष तुम्हें प्यार करता है ॥2॥

10361
ऐषु चाकन्धि पुरुहूत सूरिषु वृधासो ये मघवन्नानशुर्मघम् ।
अर्चन्ति तोके तनये परिष्टिषु मेधसाता वाजिनमह्रये धने॥3॥ 

हे  इन्द्र- देव  तुम  आ  जाओ  हम  डगर  निहारते  बैठे हैं ।
हमको तुम धन- संतति दे दो हम तेरा आवाहन करते हैं ॥3॥

10362
स इन्नु रायः सुभृतस्य चाकनन्मदं यो अस्य रंह्यं चिकेतकि ।
त्वावृधो मघवन्दाश्वध्वरो मक्षू  स वाजं भरते धना नृभिः ॥4॥ 

हे  तेजस्वी  इन्द्र- देव  तुम  सोम- पान  कर  लो  प्रभु- वर ।
अपनी पूजा से खुश होकर जगती को बॉटो सुख-सुखकर ॥4॥ 

10363
त्वं  शर्धाय  महिना  गृणान  उरु  कृधि मघवञ्छग्धि रायः ।
त्वं नो मित्रो वरुणो न मायी पित्वो न दस्म दयसे विभक्ता॥5॥

हे  प्रभु हम विनती  करते  हैं हमको  बल-सम्पन्न  बनाओ ।
तुम मित्रवरुण सम पूजनीय हो यश-वैभव हमको दे जाओ॥5॥
  

1 comment:

  1. सुख का हो व्यापक निर्धारण,
    सृष्टि बनी यह नहीं अकारण।

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