Monday, 14 October 2013

सूक्त- 178

[ ऋषि - अरिष्टनेमि तार्क्ष्य। देवता- तार्क्ष्य ।छन्द -त्रिष्टुप । ]

10508
त्यमू  षु  वाजिनं   देवजूतं  सहावानं  तरुतारं  रथानाम् ।
अरिष्टनेमिं  पृतनाजमाशुं  स्वस्तये  तार्क्ष्यमिहा  हुवेम ॥1॥

उस गरुड-देव का आवाहन है जो देवों से सेवित बलशाली है ।
संग्राम में विजय दिलाने वाली ऊँची-उडान भरने वाली है ॥1॥

10509
इन्द्रस्येव  रातिमाजोहुवाना:  स्वस्तये  नावमिवा रुहेम ।
उर्वी  न पृथ्वी  बहुले गभीरे  मा  वामेतौ मा परेतौ रिषाम ॥2॥ 

इन्द्र-देव सम वेग है उसका पर जन-हित है अपना ध्येय ।
दुर्गम- सागर  में  नाव की तरह उसका अवलंबन है  श्रेय ॥2॥

10510
सद्यश्चिद्यः शवसा पञ्च कृष्टीः सूर्य इव ज्योतिषापस्ततान ।
सहस्त्रसा:शतसा अस्य रंहिर्न स्मा वरन्ते युवतिं न शर्याम्॥3॥

जैसे   सूर्य  -  देव  जल  देते  वह  शक्ति   हमें  वैभव  देगी ।
धनु  से छूटे तीर- सदृश तार्क्ष्य - गति फिर रुक न सकेगी ॥3॥ 

2 comments:

  1. बेहतरीन सुंदर प्रस्तुति !
    विजयादशमी की शुभकामनाए...!

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