Sunday, 27 October 2013

सूक्त - 151

[ ऋषि- श्रध्दा कामायनी । देवता- श्रध्दा । छन्द - अनुष्टुप ।]

10379
श्रध्दयाग्निः समिध्यते श्रध्दया हूयते हविः ।
श्रध्दां  भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि ॥1॥

श्रध्दा विभूति में सर्व- श्रेष्ठ है उसकी अपनी गरिमा होती है ।
श्रध्दा  देवों  के  मस्तक  पर  सादर  विराजमान  होती  है ॥1॥

10380
प्रियं  श्रध्दे  ददतः  प्रियं  श्रध्दे दिदासतः ।
प्रियं  भोजेषु  यज्वस्विदं  म उदितं कृधि ॥2॥

जिसके मन में श्रध्दा होती है उसको सब कुछ मिल जाता है ।
वह सुख से जीवन यापन करता जग में यश-वैभव पाता है ॥2॥

10381
यथा   देवा  असुरेषु  श्रध्दामुग्रेषु  चक्रिरे ।
एवं  भोजेषु  यज्वस्वस्माकमुदितं  कृधि ॥3॥

भीतर- बाहर  के  असुरों  से  हे  श्रध्दे  अब  तुम्हीं  बचाओ ।
दुष्ट- दमन अति आवश्यक है संत-जनों को सबल बनाओ ॥3॥ 

10382
श्रध्दां  देवा  यजमाना  वायुगोपा  उपासते ।
श्रध्दां हृदय्य1याकूत्या श्रध्दया विन्दते वसु॥4॥

पवन-देव के संरक्षण में हम तेरी उपासना करते हैं ।
संकल्प विचरता है जब मन में तव सामीप्य ग्रहण करते हैं॥4॥

10383
श्रध्दां  प्रातर्हवामहे  श्रध्दां  मध्यंदिनं परि ।
श्रध्दां सूर्यस्य निम्रुचि श्रध्दे श्रध्दापयेह नः॥5॥

भोर में श्रध्दा का आवाहन दोपहर में आवाहन करते हैं ।
हे श्रध्दे हम श्रध्दा-वान बनें संध्या में भी आवाहन करते हैं ॥5॥



 

1 comment:

  1. समाश्रित जीवन की अवधारणा, श्रद्धा का विशिष्ट भाव।

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