Tuesday, 15 October 2013

सूक्त- 176

[ऋषि -सूनुरार्भव । देवता - ऋभुगण, अग्नि। छन्द-अनुष्टुप।]

10501
प्र   सूनव   ऋभूणां       बृहन्नवन्तवृजना ।
क्षामा ये विश्वधायसोSश्न्न्धेनुं न मातरम् ॥1॥

सूर्य-रश्मि के तेज - पुत्र रस-पान कर रहे हैं धरती पर ।
जैसे बछडे गोरस पीते हैं अपनी गो-माता को धरकर ॥1॥

10502
प्र देवं देव्या धिया भरता जातवेदसम् ।
हव्या       नो      वक्षदानुषक्        ॥2॥
 
अग्नि- देव के बनो उपासक उन्हें प्रेम से हविष्यान्न दो ।
अग्नि-देव को हवि अनुक्रम से देवों को अर्पित करने दो ॥2॥

10503
अयमु  ष्य  प्र  देवयुर्होता  यज्ञाय   नीयते ।
रथा न योरभीवृतो घृणीवाञ्चेतति त्मना ॥3॥

अग्नि - देव  ही  हवि  देते  हैं वे स्वयं भी ग्रहण करते हैं ।
तीव्र-वेग सूरज-सम पावक हवि सभी को दिया करते हैं ॥3॥

10504
अयमग्निरुरुष्यत्यमृतादिव       जन्मनः ।
सहसश्चित्सहीयान्देवो   जीवातवे   कृतः ॥4॥

अग्नि - देव  अमृत  समान  हैं  भय  से  वही  बचाते  हैं ।
पावक - पावन  है  बलशाली  वे  जीवन  सुखद बनाते हैं ॥4॥

 

1 comment: