Monday, 21 October 2013

सूक्त - 164

[ऋषि-प्रचेता आङ्गिरस ।देवता-दुःस्वप्ननाशन।छंद-अनुष्टुप,त्रिष्टुप,पंक्ति।]

10447 
अपेहि     मनसस्पतेSप     क्राम       परश्चर ।
परो निऋर्त्या आ चक्ष्व बहुधा जीवतो मनः॥1॥ 

मनोबल ऊँचा रहे हमारा शुभ हो ध्येय शुभ ही चिन्तन हो ।
धर्म अर्थ और काम मोक्ष से परिपूरित अपना जीवन हो ॥1॥

10448
भद्रं  वै  वरं  वृणते भद्रं युञ्जन्ति दक्षिणम् ।
भद्रं   वैवस्वते  चक्षुर्बहुत्रा  जीवतो  मनः॥2॥

हे  यम  हम  विनती  करते हैं सदा श्रेष्ठ  पथ पर ही जायें ।
मन के हों आयाम अनेकों विविध क्षेत्र में यश हम पायें ॥2॥

10449
यदाशसा निःशसाभिशसोपारिम जाग्रतो यत्स्वपन्तः ।
अग्निर्विश्वान्यप   दुष्कृतान्यजुष्टान्यारे   अस्मद्दधातु ॥3॥

बने रहें हम आशा- वादी निराशा अपने  निकट न आए ।
हम  सुषुप्त हों या हों जागृत त्रुटि से भी त्रुटि हो न जाए ॥3॥

10450
यदिन्द्र   ब्रह्मणस्पतेSभिद्रोहं   चरामसि ।
प्रचेता न आङ्गिरसो द्विषतां पात्वंहसः ॥4॥

अनजान  में  कोई  भूल  हुई हो हे प्रभु हमें क्षमा कर देना । 
हम भी तो सामान्य मनुज हैं त्रुटि बिसरा के अपना लेना॥4॥

10451
अजैष्माद्यासनाम चाभूमानागसो वयम् ।
जाग्रतत्स्वप्नःसङ्कल्पः पापो यं द्विष्मस्तं स ऋच्छतु यो नो द्वेष्टि तमृच्छतु ॥5॥

हम विजयी हैं सदा रहेंगे हे प्रभु देना ऐसा ज्ञान ।
यश वैभव उपलब्ध हमें हो नित निज संस्कृति का हो भान॥5॥  

2 comments:

  1. हो निर्भय हम, दूर हटे तम,
    श्वासों में उतरे नित यौवन।

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