Sunday, 20 October 2013

सूक्त - 166

[ऋषि-ऋषभ देवता । सपत्न-हन्ता । छन्द- अनुष्टुप । ]

10457
ऋषभं मा समानानां सपत्नानानां विषासहिम्  ।
हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपतिं गवाम् ॥1॥

हे  प्रभु  जीवन  श्रेष्ठ  बनाना षड्-रिपु हो जायें पल में ढेर ।
गो - माता  की  सेवा  कर  लें  जन - सेवा  में  हो  न  देर ॥1॥ 

10458
अहमस्मि    सपत्नहेन्द्र    इवारिष्टो   अक्षतः ।
अधः  सपत्ना  मे पदोरिमे सर्वे अभिष्ठिता: ॥2॥

जो  अन्यायी  हैं  विध्वंसक  हैं  हे  प्रभु उनकी गले न दाल ।
परमपिता इतना बल देना हम सज्जन की बन जायें ढाल ॥2॥

10459
अत्रैव  वोSपि  नह्याम्युभे आत् र्नी इव ज्यया ।
वाचस्पते  नि षेधेमान्यथा  मदधरं वदान् ॥3॥

हे प्रभु  मन  निर्मल  हो  जाये  चिन्तन  हो जाए उज्ज्वल ।
सत- पथ ही हो ध्येय  हमारा तन मन आत्म ब्रह्म हो बल ॥3॥

10460
अभिभूरहमागमं     विश्वकर्मेण     धाम्ना ।
आ वश्चित्तमा वो व्रतमा वोSहं समितिं ददे ॥4॥

मेरे  ही  मन  में  जो दुश्मन  हैं  वही  हैं  सबसे बडी चुनौती ।
जो  इस पर अँकुश रखते हैं  उन्हें ही मंज़िल हासिल होती ॥4॥

10461
योगक्षेमं व आदायाहं  भूयासमुत्तम  आ वो मूर्धानमक्रमीम् ।
अधस्पदान्म उद्वदत माण्डूका इवोदकान्मण्डूका उदकादिव॥5॥

हो  अप्राप्य  भी  प्राप्य  हमें  प्रभु कल्पवृक्ष हो जाए चिन्तन ।
सबका  हित  हो लक्ष्य  हमारा  सार्थक  हो जाए यह जीवन ॥5॥   

2 comments:

  1. वेदों के शुभ विचार! सुंदर अनुवाद के लिए आभार!

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  2. निष्कंटक जीवन दे देना,
    स्वप्न साधने बहुतेरे हैं।

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