Wednesday, 16 October 2013

सूक्त- 172

[ऋषि -संवर्त आङ्गिरस । देवता - उषा । छन्द- गायत्री ।]

10482
आ  याहि  वनसा   सह  गावः  सचन्त  वर्तनिं   यदूधभिः ॥1॥

हे उषा-किरण गो-रथ पर आओ नूतन ऊष्मा ऊर्जा लाओ ।
रथ-चक्र नहाए ओस-बिन्दु से तुम हँसती मुस्काती आओ ॥1॥ 

10483
आ  याहि  वस्व्या  धिया  मंहिष्ठो  जारयन्मखः  सुदानुभिः ॥2॥

हे  उषा - काल  धन- वैभव लाओ श्लोक-श्रवण करने आओ ।
कर्म- योग  का  पाठ- पढाओ पूर्णाहुति का दर्शन समझाओ ॥2॥

10484
पितुभृतो   न   तन्तुमित्सुदानवः   प्रति   दध्मो  यजामसि ॥3॥

अन्न-दान की महिमा गाओ दान-यज्ञ - माहात्म्य बताओ ।
यज्ञ- भाव हमको समझाओ तुम अपनी स्तुति सुनने आओ ॥3॥

10485
उषा     अप   स्वसुस्तमः   सं    वर्तयति   वर्तनिं   सुजातता ॥4॥

तमस   मिटाती  उषा  हमारी  जीवन  को  आलोक  दिखाती ।
कोई  न  भटके  अँधकार  में  यही  सोचकर  प्रतिदिन आती ॥4॥

 

1 comment:

  1. दिन आरम्भ की महिमा से भरे शब्द।

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