Thursday, 10 October 2013

सूक्त- 189

[ ऋषि - सर्पराज्ञी । देवता - सूर्य । छन्द - गायत्री  । ]

10543
आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन् मातरं पुरः ।
पितरं      च           प्रयन्त्स्वः        ॥1॥

नीले - नभ  में  प्रकट  हुए  थे आलोकवान  सूरज- तेजस्वी ।
धरती मॉं को पहले छूते फिर अंतरिक्ष और स्वः ओजस्वी ॥1॥

10544
अंतश्चरति रोचनास्य प्राणादपानाती ।
व्यख्यन्महिषो                दिवम् ॥2॥

सूर्य  -  देव  का   यह   प्रकाश   नभ  में  संचारित  होता   है ।
इन  सूर्य - रश्मियों से ही प्राणापान भी संचालित होता है ॥2॥

10545
त्रिंशध्दाम वि राजति वाक्पतङ्गाय धीयते ।
प्रति         वस्तोरह                      द्युभिः ॥3॥

सूर्य -  देव  सबके  प्रेरक  हैं  विश्राम  कभी  नहीं  करते  हैं ।
आलोक और ऊष्मा  देते  हैं सब उनकी पूजा  करते  हैं ॥3॥

शकुन्तला शर्मा , भिलाई  [ छ. ग. ]


 

1 comment:

  1. बेहतरीन सूक्त संग्रहणीय

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