मोहनदास करमचंद गॉंधी यही था उनका पूरा नाम
हर घडी सोचते मातृभूमि पर कब होगा पूरा यह काम।
न तलवार न बरछी से ही बिन रक्तपात के हों आज़ाद
दास नहीं हम अँग्रेज़ों के सत्याग्रह से होंगे आबाद ।
समरथ को फिर साथ मिला आज़ाद भगत थे तिलक बोस
कर्मयोग था लक्ष्य देह का यात्रा लंबी थी अनगिन - कोस ।
रत रहे निरंतर राष्ट्र - यज्ञ में स्वजनों का था सुन्दर - साथ
मन का मन से जो नाता था जनमन को फिर किया सनाथ ।
चंबा से फिर रामेश्वर तक सत्याग्रह अभियान चला
दधीचि सदृश उत्सर्ग हो गए यह थी उनकी जीने की कला ।
गॉंधी का वह चरखा अब भी देशी का पाठ पढाता है
धीर - वीर बन कर उभरो तुम वह हर पल हमें सिखाता है ।
बहुत ही सुन्दर रचना।
ReplyDeleteसुंदर भावों के साथ सार्थक विचारों की काव्य प्रस्तुति।
ReplyDeleteआज और सर्वसमय के लिए एक सर्वकालिक रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर पंक्तियाँ।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया,सुंदर सृजन ! बधाई
ReplyDeleteRECENT POST : मर्ज जो अच्छा नहीं होता.
राजेन्द्र जी ! आभार आपका ।
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना है बधाई
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