Sunday, 13 October 2013

सूक्त - 179

[ऋषि -शिबि औशीनर, प्रतर्दन काशिराज, वसुमना रोहिदश्व । देवता-इन्द्र ।छन्द- त्रिष्टुप-अनुष्टुप।]

10511
उत्तिष्ठताव पश्यतेन्द्रस्य भागमृत्वियम् ।
यदि श्रातो जुहोतन  यद्यश्रातोममत्तन ॥1॥

इन्द्र- देव  का यज्ञ- भाग अब ऋतु के अनुकूल बनाना है ।
सामग्री  सब  संचित  करके  उन्हें  निमंत्रण  भिजवाना  है ॥1॥

10512
श्रातं हविरो श्विन्द्र प्र याहि जगाम सूरो अध्वनो विमध्यम् ।
परि त्वासते निधिभिः सखायः कुलपा न व्राजपतिं चरन्तम् ॥2॥

हे  इन्द्र- देव  सोमादि- सहित  सब हविष्यान्न हम लाए हैं ।
तुम  आओ  सादर  ग्रहण  करो   हम  तुम्हें  बुलाने  आए  हैं ॥2॥

10513
श्रातं मन्य ऊधनि श्रातमग्नौ सुश्रातं मन्ये तदृतं नवीयः ।
माध्यन्दिनस्य सवनस्य दध्नःपिबेन्द्र वज्रिन्पुरुकृज्जुषाणः॥3॥

हे  इन्द्र - देव  आओ  देखो  गोरस  का  हवि  हम  लाए हैं ।
तुम  आओ  सोम - पान  कर  लो  हम  वह  भी लेकर आए हैं ॥3॥

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