Saturday, 12 October 2013

सूक्त- 184

[ ऋषि - त्वष्टा । देवता - विष्णु , अश्विनीकुमार । छन्द - अनुष्टुप  । ]

10526
विष्णुर्योर्नि कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंशतु ।
आ सिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते ॥1॥

गर्भ- देवता प्राण- वायु से योनि समर्थ बना देते हैं ।
गर्भ की रक्षा  विधि करते  हैं त्वष्टादेव  रूप देते हैं ॥1॥

10527
गर्भ धेहि सिनीवालि गर्भं धेहि सरस्वति ।
गर्भं ते अश्विनौ देवावा धत्तां पुष्करस्त्रजा ॥2॥

 स्त्रियॉं गर्भ धारण करती हैं प्रेम के बँधन में बँधकर ।
हृदय-कमल से करे सुरक्षा प्राणापान सहायक बनकर॥2॥ 

10528
हिरण्ययी अरणी यं निर्मन्थतो अश्विना ।
तं ते गर्भं हवामहे दशमे मासि सूतवे ॥3॥

अश्विनीकुमार रक्षा करते हैं संभावना तलाश करते हैं ।
गर्भ पूर्ण जब हो जाता है आमंत्रित प्रसव हेतु करते हैं ॥3॥
 

3 comments:

  1. जीवन को दिव्यता प्रदान करती पंक्तियाँ !

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  2. एक व्यवस्था, प्रस्तुत सब नर।

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