Thursday, 24 October 2013

सूक्त - 157

[ऋषि- साधन । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- त्रिष्टुप ।] 

10409
इमा    नु    कं    भुवना   सीषधामेन्द्रश्च    विश्वे    च   देवा: ॥1॥

जग में  जितने  भी  सुख-साधन हैं वह उपलब्ध हमें हो जाए ।
देवों की हम पर कृपा-दृष्टि हो जीवन जन-हित के काम आए॥1॥

10410
यज्ञं  च  नस्तन्वं  च प्रजा चादित्यैरिन्द्रः  सह  चीक्लृपाति ॥2॥

कर्म-योग  हो  सफल  सर्वदा  स्वस्थ  रहे  सबका तन-मन ।
सीखें  संस्कार  सभी  संतानें  सज्जनता  ही हो सबका धन ॥2॥

10411
आदित्यैरिन्द्रः सगणो  मरुद्भिरस्माकं  भूत्वविता तनूनाम् ॥3॥

हे  आदित्य देव विनती करते हैं जीवन-यज्ञ सफल हो जाये ।
हे  पवन-देव  सान्निध्य  तुम्हारा सब  संकट से हमें बचाये ॥3॥

10412
हत्वाय    देवा   असुरान्यदायन्देवा   देवत्वमभिरक्षमाणा: ॥4॥

यही  सृष्टि  का  नेम-नियम  है  सदा  सत्य  की जीत हुई है ।
देव  सहायक  हैं  हम  सबके  असत  की  हरदम  हार हुई है ॥4॥

10413
प्रत्यञ्चमर्कमनयञ्छचीभिरादित्स्वधामिषिरां पर्यपश्यन् ॥5॥

शुभ-चिन्तन सब कुछ देता है जीवन में वह हँसता- गाता है ।
कृतज्ञता  में  बडी  शक्ति  है  असंभव  भी संभव हो जाता है ॥5॥  
 

1 comment:

  1. देव व मानव के सहयोग से स्फुरित यह प्रकृति..

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