Sunday, 27 October 2013

सूक्त- 150

[ऋषि- मृळीक वासिष्ठ । देवता- अग्नि । छन्द- बृहती, जगती ।]

10374
समिध्दश्चित्समिध्यसे           देवेभ्यो           हव्यवाहन ।
आदित्यै   रुद्रैर्वसुभिर्न  आ  गहि  मृळीकाय  न  आ  गहि ॥1॥

हे  अग्नि- देव  तुम  आ  जाओ  हम  सादर तुम्हें बुलाते हैं ।
सबका कल्याण तुम्हीं करते हो तुमसे हम यश-धन पाते हैं॥1॥

10375
इमं          यज्ञमिदं       वचो        जुजुषाण       उपागहि ।
मर्तासस्त्वा   समिधान     हवामहे     मृळीकाय    हवामहे ॥2॥

हे   भगवन   तुमसे   विनती  है   यह  अनुष्ठान  स्वीकार  करें ।
यह  श्रध्दा  से  भरा  भाव  है  सुख- साधन  हमें प्रदान करें ॥2॥

10376
त्वामु      जातवेदसं      विश्ववारं       गृणे         धिया ।
अग्ने   देवॉं  आ  वह  नः  प्रियव्रतान्मृलीकाय   प्रियव्रतान् ॥3॥

हे अग्नि-देव सुख-श्रोत तुम्हीं हो सब देवों को संग लेकर आओ।
हाथ - जोड  विनती  करते  हैं सुख- समृध्दि  हमें  दे जाओ ॥3॥

10377
अग्निर्देवो देवानामभवत्पुरोहितोSग्निं मनुष्या3ऋषयः समीधिरे।
अग्निं      महो     धनसातावहं    हुवे     मृळीकं     धनसातये ॥4॥ 

तुम   दिव्य   गुणों   के  स्वामी  हो  सब  देवों  में  अग्रगण्य  हो ।
धन  और  धान  हमें देना प्रभु तुम पूजनीय तुम ही वरेण्य हो ॥4॥

10378
अग्निरत्रिं  भरद्वाजं  गविष्ठिरं  प्रावन्नः  कण्वं  त्रसदस्युमाहवे ।
अग्निं   वसिष्ठो      हवते    पुरोहितो     मृलीकाय    पुरोहितः ॥5॥

सदा   सुरक्षा   देना   प्रभुवर  दुश्मन   से  हमारी  रक्षा  करना ।
हे  अग्नि- देव  तुम  पूज्य  सभी के हम पर वरद-हस्त रखना ॥5॥
   

1 comment:

  1. सूर्य का अवतार, पृथ्वी पर, ऊर्जाचक्र को संचालित करने के लिये।

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