[ ऋषि -संवनन । देवता- 1 अग्नि , 2 - 4 संज्ञान । छन्द - अनुष्टुप , 3 - त्रिष्टुप ।]
10549
संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ ।
इळस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर ॥1॥
हे सुखदाता अग्निदेव जग को आलोक प्रदान करें ।
हो सभी तत्व में विद्यमान वैभव-ऐश्वर्य प्रदान करें ॥1॥
10550
सङ्च्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ॥2॥
संग- संग ही चलो परस्पर स्नेह- पूर्ण व्यवहार करो ।
ज्ञानार्जन से बढो निरन्तर सबका हित स्वीकार करो ॥2॥
10551
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम् ।
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि ॥3॥
जग का हित हो ध्येय तुम्हारा तुम सबका चिंतन हो एक ।
भेद- भाव मन में न आए चिन्तन-मनन सदा हो नेक ॥3॥
10552
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ॥4॥
भाव- भूमि निर्मल देता हूँ संकल्प-सोच हो एक समान ।
संग-संग तुम चलो निरंतर पूर्ण-काम हो बनो महान ॥4॥
॥ इति दशमं मण्डलं समाप्तम् ॥
सन्दर्भ ग्रन्थ 1 -ऋग्वेद - वैद्यनाथ शास्त्री आर्य भाषा - भाष्य -2 वेदामृत - विनोबा , परंधाम प्रकाशन पवनार
3- ऋग्वेद संहिता सम्पादक - वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. , श्री राम शर्मा आचार्य ।
॥ इति ऋग्वेदसंहिता समाप्ता ॥
शकुन्तला शर्मा भिलाई, [छ. ग. ]
10549
संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ ।
इळस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर ॥1॥
हे सुखदाता अग्निदेव जग को आलोक प्रदान करें ।
हो सभी तत्व में विद्यमान वैभव-ऐश्वर्य प्रदान करें ॥1॥
10550
सङ्च्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ॥2॥
संग- संग ही चलो परस्पर स्नेह- पूर्ण व्यवहार करो ।
ज्ञानार्जन से बढो निरन्तर सबका हित स्वीकार करो ॥2॥
10551
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम् ।
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि ॥3॥
जग का हित हो ध्येय तुम्हारा तुम सबका चिंतन हो एक ।
भेद- भाव मन में न आए चिन्तन-मनन सदा हो नेक ॥3॥
10552
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ॥4॥
भाव- भूमि निर्मल देता हूँ संकल्प-सोच हो एक समान ।
संग-संग तुम चलो निरंतर पूर्ण-काम हो बनो महान ॥4॥
॥ इति दशमं मण्डलं समाप्तम् ॥
सन्दर्भ ग्रन्थ 1 -ऋग्वेद - वैद्यनाथ शास्त्री आर्य भाषा - भाष्य -2 वेदामृत - विनोबा , परंधाम प्रकाशन पवनार
3- ऋग्वेद संहिता सम्पादक - वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. , श्री राम शर्मा आचार्य ।
॥ इति ऋग्वेदसंहिता समाप्ता ॥
शकुन्तला शर्मा भिलाई, [छ. ग. ]
बहुत खूब ,श्लोको का काव्यमय सुंदर रूपांतर ..!
ReplyDeleteRECENT POST : अपनी राम कहानी में.
साथ साथ चलें...हमारे मन एक हों कितनी सुंदर प्रार्थना !
ReplyDeleteसङ्च्छध्वं सं वदध्वं
ReplyDeleteयह बहुत पढ़ा हुआ सूत्र है, पहली बार जाना कि कहाँ से लिया गया है। आभार।