Tuesday 8 October 2013

सूक्त - 191

[ ऋषि -संवनन । देवता- 1 अग्नि , 2 - 4 संज्ञान । छन्द - अनुष्टुप , 3 - त्रिष्टुप ।] 

10549
संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ ।
इळस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर ॥1॥

हे सुखदाता अग्निदेव जग को आलोक प्रदान करें ।
हो सभी तत्व में विद्यमान वैभव-ऐश्वर्य प्रदान करें ॥1॥

10550
सङ्च्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा  पूर्वे सञ्जानाना  उपासते ॥2॥

संग- संग ही चलो परस्पर स्नेह- पूर्ण व्यवहार करो ।
ज्ञानार्जन से बढो निरन्तर सबका हित स्वीकार करो ॥2॥

10551
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम् ।
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि ॥3॥

जग का हित हो ध्येय तुम्हारा तुम सबका चिंतन हो एक ।
भेद- भाव  मन में न आए चिन्तन-मनन सदा हो नेक ॥3॥

10552
समानी  व  आकूतिः  समाना  हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ॥4॥

भाव- भूमि निर्मल देता हूँ संकल्प-सोच हो एक समान ।
संग-संग तुम चलो निरंतर पूर्ण-काम हो बनो महान ॥4॥

॥ इति दशमं मण्डलं समाप्तम्  ॥
सन्दर्भ ग्रन्थ 1 -ऋग्वेद - वैद्यनाथ शास्त्री  आर्य भाषा - भाष्य  -2 वेदामृत - विनोबा , परंधाम प्रकाशन पवनार
3- ऋग्वेद संहिता सम्पादक - वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. , श्री राम शर्मा आचार्य । 

॥ इति ऋग्वेदसंहिता समाप्ता ॥

शकुन्तला शर्मा भिलाई, [छ. ग. ]

3 comments:

  1. बहुत खूब ,श्लोको का काव्यमय सुंदर रूपांतर ..!

    RECENT POST : अपनी राम कहानी में.

    ReplyDelete
  2. साथ साथ चलें...हमारे मन एक हों कितनी सुंदर प्रार्थना !

    ReplyDelete
  3. सङ्च्छध्वं सं वदध्वं
    यह बहुत पढ़ा हुआ सूत्र है, पहली बार जाना कि कहाँ से लिया गया है। आभार।

    ReplyDelete