Thursday 17 October 2013

सूक्त- 171

[ऋषि - इट भार्गव । देवता-इन्द्र । छन्द- गायत्री ।]

10478
त्वं त्यमिटतो रथमिन्द्र प्रावः सुतावतः ।
अशृणोः         सोमिनो        हवम्     ॥1॥

ज्ञानी  गृहस्थ और सज्जन के हे इन्द्र देव तुम रक्षक हो ।
सोम - युक्त  स्तोत्रों  को तुम सुनने के अति  इच्छुक हो ॥1॥

10479
त्वं मखस्य दोधतः शिरोSव त्वचो भरः ।
अगच्छः        सोमिनो           गृहम्  ॥2॥

शुभ-कर्म विरोध तुम्हें नहीं भाता ऐसे जन से रहते हो दूर ।
पर जो कल्याण कार्य करता है सहयोग उसे करते भरपूर ॥2॥

10480
त्वं त्यमिन्द्र मर्त्यमास्त्रबुध्नाय वेन्यम्  ।
मुहुः             श्रथ्ना           मनस्यवे  ॥3॥ 

विद्वानों के तुम शुभ-चिन्तक हो आडम्बर के घोर विरोधी हो ।
आपस  में  द्वेष  जो  करते  हैं  तुम  उनके   प्रतिरोधी  हो  ॥3॥

10481
त्वं त्यमिन्द्र सूर्यं पश्चा सन्तं पुरस्कृधि ।
देवानां           चित्तिरो          वशम्   ॥4॥ 

जब  सन्ध्या - देवी आती  हैं और अन्धकार  हो जाता है ।
फिर पुनः सुबह  सूर्योदय होता पुनर्नवा जग हो जाता है ॥4॥     

1 comment: