Tuesday 15 October 2013

सूक्त- 174

[ऋषि -अभीवर्त्त आङ्गिरस । देवता- राजा । छन्द - अनुष्टुप । ]

10492
अभीवर्तेन  हविषा  येनेन्द्रो  अभिवावृते ।
तेनास्मान्ब्रह्मणस्पतेSभि राष्ट्राय वर्तय ॥1॥

हे पालक परमपिता परमेश्वर राजा को निज ध्येय बतायें ।
जन्म-भूमि का कर्ज चुकायें देश प्रगति की ओर बढायें ॥1॥

10493
अभिवृत्य  सपत्नानभि  या  नो  अरातयः ।
अभि पृतन्यन्तं तिष्ठाभि यो न इरस्यति ॥2॥

हे प्रभु जी दुश्मन हिंसक है वह युध्द की इच्छा रखता है ।
ऐसे रिपुओं को महादण्ड दें जो हमसे  ईर्ष्या करता  है ॥2॥

10494
अभि त्वा देवः सविताभि सोमो अवीवृतत् ।
अभि त्वा विश्वा भूतान्यभीवर्तो यथाससि ॥3॥

आदित्य अनल की कृपा रहे जनता अपना उत्साह बढाये ।
सर्वोपरि  हो  देश हमारा  जन - समूह  कर्तव्य  निभाये ॥3॥

10495
येनेन्द्रो  हविषा  कृत्व्यभवद्  द्युम्न्युत्तमः ।
इदं तदक्रि  देवा  असपत्नः  किलाभुवम् ॥4॥ 

राजा अजातशत्रु बन जाए दुश्मन उसके वश में हो जाये ।
जनता अपनों का करे समर्थन देश ही सर्वोपरि हो जाये ॥4॥

10496
असपत्नः      सपत्नहभिराष्ट्रो     विषासहिः ।
यथाहमेषां भूतानां विराजानि जनस्य च ॥5॥

वैरी पर अंकुश रख पायें जन्मभूमि हित बलि-बलि जायें ।
जन - कल्याण में हाथ बँटायें  मातृभूमि के काम आयें ॥5॥
 

2 comments:

  1. संतुलन हेतु राजा, न्याय हेतु राजा, पालन हेतु राजा।

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  2. वेदों की अनोखी दुनिया

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